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________________ trader हिदे कसा पाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ ९३२३. सामण्ण-विसेसाणं संबंधो वत्थु; तिकालविसयाणं गुणाणमजहवुत्तीए aurtfuerry संबंधाणुववत्तदो । ण गुण-विसेस - परमाणुदव्वं च (व्वाणं) समवाओ अत्थि अण्णकवो; अण्णस्स अणुवलंभादो ( ? ) । ३५४ ९ ३२४. न तार्किकपरिकल्पितः समवायः संघटयति तत्र नित्ये क्रम- यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । न स क्षणिकोऽपि तत्र भावाभावाभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । नान्यत आगच्छति तत्परित्यक्ताशेषकार्याणामसच्वप्रसङ्गात् । नापरित्यज्य आग ही सभी ज्ञानोंकी युगपत् प्राप्ति हो जाती है, क्योंकि ज्ञानमें भी विषय के भेदसे ही भेद पाया जाता है । पर जब विषय में ही कोई भेद नहीं तो ज्ञानमें भेद कैसे हो सकता है । अतः एकसाथ अनेक ज्ञानोंकी प्राप्ति होनेसे संकरदोष आ जाता है। तथा विशेषको सर्वथा स्वतन्त्र मानने पर एक विशेषका दूसरे विशेषसे सत्त्वकी अपेक्षा भी भेद पाया जायगा और ऐसी अवस्थामें सभी विशेष चालनीन्याय से असत्त्वरूप हो जाते हैं, इसप्रकार उनके असद्रूप हो जाने से सभी ज्ञान निरालम्बन हो जाते हैं। पर ज्ञान न तो संकररूप ही होते हैं और न निरालम्बन ही होते हैं, अतः पदार्थोंको केवल सामान्यरूप और केवल विशेषरूप न मान कर उभयात्मक ही मानना चाहिये यह सिद्ध होता है । ९३२३. तथा सामान्य और विशेषके सम्बन्धको स्वतन्त्र वस्तु कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि त्रिकालवर्ती गुण अनादिनिधनरूपसे एक दूसरेको नहीं छोड़ते हुए रहते हैं इसलिये उनका संबन्ध नहीं बन सकता है । यदि कहा जाय कि गुणविशेष और परमाणु द्रव्यका अन्यकृत समवायसम्बन्ध हो जायगा, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यकी उपलब्धि नहीं होती है । ९३२४. तथा तार्किकोंके द्वारा माना गया समवायसम्बन्ध भी सामान्य और विशेषका सम्बन्ध नहीं करा सकता है, क्योंकि वह नित्य है इसलिये उसमें क्रमसे अथवा एकसाथ अर्थक्रिया के मानने में विरोध आता है । उसीप्रकार समवाय क्षणिक भी नहीं है, क्योंकि क्षणिक पदार्थ में भाव और अभावरूपसे अर्थक्रिया के माननेमें विरोध आता है । अर्थात् क्षणिक समवाय भावरूप अवस्था में अर्थक्रिया करता है, या अभावरूप अवस्था में ? भावरूप अवस्था में तो वह अर्थक्रिया कर नहीं सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर सभी उत्तरोत्तर क्षण एकक्षणवृत्ति हो जाते हैं । तथा अभावरूप अवस्था में भी वह अर्थक्रिया नहीं कर सकता है, क्योंकि जो विनष्ट हो गया है वह स्वयं कार्यकी उत्पत्ति करनेमें असमर्थ है । अन्य पदार्थको छोड़ कर उत्पन्न होनेवाले पदार्थ में समवाय आता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर समवायके द्वारा छोड़े गये समस्त कार्योंको असत्त्वका प्रसंग प्राप्त होता है । अन्य (१) अण्णक्कमो अ- अ०, स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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