SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २० ] प्रद्धापरिमाणणिसो $ ३२२. होदि एसो दोसो, जदि केवलणाणं विसेसविसयं चेव केवलदंसणं पि सामण्णविसयं चेव । ण च एवं, दोण्हं पि विसयाभावेण अभावप्पसंगादो । तं जहा, ण ताव सामण्णमत्थि; विसेसवदिरित्ताणं तब्भावसारिच्छलक्खणसामण्णाणमणुवलंभादो। समाणेगपच्चयाणमुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो अत्थि सामण्णमिदि ण वोत्तुं जुत्तं; अणेगासमाणाणुविद्धेगसमाणग्गहणेण जच्चतरीभूदपच्चयाणमुप्पत्तिदंसणादो । ण सामण्णवदिरित्तो विसेसो वि अस्थि: सामण्णाणुविद्धम्सेव विसेसस्सुवलंभादो। ण च एसो सामण्ण-विसेसाणं संजोगो गाणेणेगेण विसयीकओ; पुधपसिद्धाणं तेसिमणुवलंभादो । उवलंभे वा संकराणालंबणपच्चया होति, ण च एवं, तहा संते गहणाणुववत्तीदो।। दोनोंकी उत्पत्ति एक साथ रही आओ, पर इतना निश्चित है कि केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग ये दोनों एकसाथ नहीं होते है ॥१३॥" ___ ३२२. समाधान-यदि केवलज्ञान केवल विशेषको विषय करता और केवलदर्शन केवल सामान्यको विषय करता तो यह दोष संभव होता, पर ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप विषयका अभाव होनेसे दोनोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। इसका खुलासा इसप्रकार है-केवल सामान्य तो है नहीं, क्योंकि अपने विशेषोंको छोड़ कर केवल तद्भाव सामान्य और सादृश्यलक्षण सामान्य नहीं पाये जाते हैं। यदि कहा जाय कि सामान्यके बिना सर्वत्र समान प्रत्यय और एक प्रत्ययकी उत्पत्ति बन नहीं सकती है, इसलिये सामान्य नामका स्वतन्त्र पदार्थ है, सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि एकका ग्रहण अनेकानुविद्ध होता है और समानका ग्रहण असमानानुविद्ध होता है अतः सामान्यविशेषात्मक वस्तुको विषय करनेवाले जात्यन्तरभूत ज्ञानोंकी ही उत्पत्ति देखी जाती है। इससे प्रतीत होता है कि सामान्य नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। तथा सामान्यसे सर्वथा भिन्न विशेष नामका भी कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि सामान्यसे अनुविद्ध होकर ही विशेषकी उपलब्धि होती है। यदि कहा जाय कि सामान्य और विशेष स्वतन्त्र पदार्थ होते हुए भी उनके संयोगका परिज्ञान एक ज्ञानके द्वारा होता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वथा स्वतन्त्ररूपसे न तो सामान्य ही पाया जाता है और न विशेष ही पाया जाता है, अतः उनका संयोग नहीं हो सकता है। यदि सामान्य और विशेषका सर्वथा स्वतन्त्र सद्भाव मान लिया जाय तो समस्त ज्ञान या तो संकररूप हो जायंगे या आलम्बन रहित हो जायंगे। पर ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर उनका ग्रहण ही नहीं हो सकता है। विशेषार्थ-यदि सामान्यको सर्वथा स्वतन्त्र माना जाता है तो सभी पदार्थों में परस्पर कोई भेद नहीं रहता है। और ऐसी अवस्थामें एक पदार्थके ग्रहण करनेके समय (१)-वत्तप्पसंगा-आ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy