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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? विसेसाहिया चि । विसेसाहियत्तं कुदो णव्वदे ? 'सेसा हु सविसेसा' त्ति वयणादो । ६३०३. 'सोद'-सोदिदियजणिदोग्गहणाणं सोदमिदि घेत्तव्वं । कुदो ? कजे कारणुवयारादो। जहण्णद्धाविसेसाहियभावा पुव्वं व सव्वमुत्तेसु अहिसंबंधेयव्वा । तदो सोदिदियओग्गहणाणस्स जहणिया अद्धा विसेसाहिया त्ति सिद्धं । विसेसाहियत्तं कथं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। ण च पमाणं पमाणंतरमवेक्खदे; अणवत्थावत्तीदो। ६३०४. 'घाण'-घाणिदियउप्पण्णओग्गहणाणमुवयारेण घाणं णाम । तत्थ जा जहणिया अद्धा सा विसेसाहिया। सेसं सुगमं । 'जिब्भाए'-जिभिदियजणिदओग्गहणाणमुवयारेण जिब्भा, तिस्से जा जहणिया अद्धा सा विसेसाहिया । 'मण-वयण शंका-दर्शनोपयोगके जघन्य कालसे चक्षु इन्द्रियजनित अवग्रहका जघन्य काल विशेष अधिक है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- सेसा हु सविसेसा' अर्थात् शेषका काल विशेष अधिक है इस गाथा वचनसे जाना जाता है कि दर्शनोपयोगके जघन्य कालसे चक्षुइन्द्रियजनित अवग्रहका जघन्य काल विशेष अधिक है। ६३०३. श्रोत्र पदसे श्रोत्र इन्द्रियसे उत्पन्न हुआ अवग्रहज्ञान ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि श्रोत्र कारण है और श्रोत्रइन्द्रियजन्य ज्ञान कार्य है। इसलिए कार्य में कारणका उपचार करके श्रोत्र इन्द्रिय जन्य ज्ञान भी श्रोत्र कहलाता है। जघन्य काल और विशेषाधिकभावका जहाँ तक अधिकार है वहां तक सभी सूत्रोंमें पहलेके समान इन दोनोंका सम्बन्ध कर लेना चाहिये। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि चक्षु इन्द्रियजन्य अवग्रहज्ञानके जघन्य कालसे श्रोत्रइन्द्रियजन्य अवग्रहज्ञानका जघन्य काल विशेष अधिक है। शंका-पूर्वज्ञानके कालसे इस ज्ञानका काल विशेष अधिक है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है कि पूर्वज्ञानके कालसे इस ज्ञानका काल विशेष अधिक है। यदि कहा जाय कि इस सूत्रके कथनको प्रमाण सिद्ध करनेके लिये कोई दूसरा प्रमाण देना चाहिये सो भी ठीक नहीं है क्योंकि एक प्रमाण अपनी प्रमाणताके लिये दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता है, यदि ऐसा न माना जाय तो अनवस्था प्राप्त होती है। ६३०४. घ्राण इन्द्रियसे उत्पन्न हुए अवग्रहज्ञानको उपचारसे घ्राण कहते हैं। इस ज्ञानमें जो जघन्य काल पाया जाता है वह श्रोत्र इन्द्रियजन्य अवग्रहके जघन्य कालसे विशेष अधिक है। शेष कथन सुगम है। जिह्वा इन्द्रियसे उत्पन्न हुए अवग्रहज्ञानको उपचारसे जिह्वा कहा है। इस ज्ञानमें जो जघन्य काल पाया जाता है वह घ्राण इन्द्रियसे उत्पन्न हुए अवग्रह ज्ञानके कालसे विशेष अधिक है । जिह्वा इन्द्रियसे उत्पन्न हुए अवग्रहज्ञानके जघन्य कालसे मनोयोगका जघन्यकाल विशेष अधिक है। मनोयोगके जघन्य कालसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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