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________________ गा०१५ श्रद्धापरिमाणणिदेसो भादो। “कालमसंखं संखं च धारणा ॥१३४॥" ति सुत्तवयणादो कालमेओ वि अस्थि चे ण एसो धारणाए कालो किंतु धारणाजणिदसंसकारस्स, तेण ण तेसिं कालभेओ। कञ्जभेएण कारणभेओ तं किजइ त्ति चे; होउ भेओ, किंतु ण सो एत्थ गुणहराइरिएण विवक्खिओ । अविवक्खिओ ति कथं णव्वदे ? तदद्धप्पाबहुअणिदेसाभावादो । तदो ओग्गहणाणस्सेव एत्थ गहणं कायव्वं । 'अद्धा त्ति, 'जहणिया' त्ति पुव्वं व अणुवट्टदे, तेणेवं सुत्तत्थो वत्तव्यो-दसणोवजोगजहण्णद्धादो चक्खिदियओग्गहणाणस्स जहण्णद्धा _शंका-कालमसंखं संखं च धारणा' अर्थात् असंख्यात अथवा संख्यात काल तक धारणा होती है ॥१३४॥” इस सूत्रके अनुसार अवाय और धारणा इन दोनों ज्ञानोंमें कालभेद भी पाया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि उक्त सूत्र में जो धारणाका काल कहा है वह धारणाका नहीं है किन्तु धारणाज्ञानसे उत्पन्न हुए संस्कारका है, इसलिये उक्त दोनों ज्ञानोंमें कालभेद नहीं है। शंका-कार्यके भेदसे कारणमें भेद पाया जाता है। इस नियमसे धारणा और अवाय ज्ञानमें भेद हो जायगा ? समाधान-इसप्रकार यदि दोनों ज्ञानों में भेद प्राप्त होता है तो होओ, किन्तु गुणधर आचार्यने उसकी यहां विवक्षा नहीं की है। शंका-कार्यके भेदसे अवाय और धारणामें जो भेद है उसकी यहाँ गुणधर आचार्यने विवक्षा नहीं की यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि, धारणाके कालके अल्पबहुत्वका निर्देश उक्त गाथामें नहीं पाया जाता है, इससे जाता है कि कार्यके भेदसे अवाय और धारणामें जो भेद है उसकी गुणधर आचार्यने विवक्षा नहीं की है। इसलिये प्रकृतमें चक्षुरिन्द्रिय पदसे धारणाका ग्रहण न करके तत्सम्बधी अवग्रहज्ञानका ही ग्रहण करना चाहिये। जिसप्रकार अद्धा और जघन्य पदकी अनाकार उपयोगमें अनुवृत्ति हुई है उसीप्रकार यहां भी उक्त पदोंकी अनुवृत्ति होती है, इसलिये इसप्रकार सूत्रका अर्थ कहना चाहियेदर्शनोपयोगके जघन्य कालसे चक्षुइन्द्रियसे उत्पन्न हुए अवग्रहज्ञानका जघन्य काल विशेष अधिक है। (१) "कालमसंखं संखं च धारणा होइ नायव्वा ।"-आ०नि० गा०४। नन्दी० स०३४। (२) "अर्थतस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा'-सार्थ० १११५ । “महोदये च कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानम् 'अनन्तवीर्योऽपि तथा निर्णीतस्य कालान्तरे तथैव स्मरणहेतुः संस्कारो धारणा इति ।"-स्या. रत्ना० पृ० ३४९ । अकलंक. टि. पृ० १३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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