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________________ गा०१५ श्रद्धापरिमाणणिदेसो लियाणं बहुत्तसिद्धीदो। 'अणायारे'-पमाणदो पुधभूदं कम्ममायारो तं जम्मि णस्थि सो उवजोगो अणायारो णाम 'दंसणुवजोगो' त्ति भणिदं होदि । तम्मि अणायारे अद्धा जहण्णा वि अत्थि उक्कस्सा वि । तत्थ जा जहण्णा सा उवरि भण्णमाणसव्वद्धाहितो थोवा त्ति संबंधो कायव्वो। उक्कस्सा ण होदि त्ति कुदो णव्वदे ? 'णिव्वाघादेणेदा होंति जहण्णाओ' त्ति पुरदो भण्णमाणगाहावयवादो। एतदप्पाबहुअमद्धाविसयमिदि कुदो णव्वदे ? 'कोधद्धा माणद्धा' ति एत्थष्टिदअद्धासदाणुउत्तीदो। एसा जहणिया अणायारद्धा तीसु वि दंसणेसु केवलदंसणवजिएसु संभवइ । तं कथं णव्वदे ? अविसेसिदूण परूवणादो। ६३०२. 'चक्विंदिय-सोद-घाण-जिब्भाए'चक्विंदियं ति उत्ते चक्खिंदियजणिद प्रमाणसे पृथग्भूत कर्मको आकार कहते हैं। अर्थात् प्रमाणमें अपनेसे भिन्न बहिर्भूत जो विषय प्रतिभासमान होता है उसे आकार कहते हैं। वह आकार जिस उपयोगमें नहीं पाया जाता है वह उपयोग अनाकार अर्थात् दर्शनोपयोग कहलाता है। उस अनाकार उपयोगमें काल जघन्य भी होता है और उत्कृष्ट भी होता है। उसमें जो जघन्य काल पाया जाता है वह आगे कहे जानेवाले समस्त कालोंसे अल्प है, ऐसा यहां सम्बन्ध कर लेना चाहिये। शंका-यहां अनाकार उपयोगमें जो काल कहा गया है वह उत्कृष्ट नहीं है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-णिव्वाघादेणेदा होंति जहण्णाओ' अर्थात् अनाकार उपयोगसे लेकर क्षपक तक चार गाथाओंके द्वारा जितने स्थान बतलाये हैं वे सब व्याघातके बिना जघन्य काल हैं, इसप्रकार आगे कहे जानेवाले गाथाके अंशसे यह जाना जाता है कि अनाकार उपयोगमें यहां जो काल बतलाया है वह उत्कृष्ट 'काल नहीं है किन्तु जघन्य काल है। शंका-यहां जो अल्पबहुत्व बतलाया है वह कालकी अपेक्षासे बतलाया है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-कोधद्धा माणद्धा' इस गाथा पदमें आये हुए अद्धा शब्दकी अनुवृत्तिसे जाना जाता है कि यहां जो अल्पबहुत्व बतलाया है वह कालकी अपेक्षासे है। अनाकार उपयोगका यह जघन्य काल केवलदर्शनके सिवा शेष तीनों दर्शनोंमें पाया जाता है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-चूंकि विशेषता न करके सामान्य दर्शनोपयोगमें कालका प्ररूपण किया है। इससे जाना जाता है कि यहां केवलदर्शनके बिना शेष तीन दर्शनोंका ग्रहण किया है। ६३०२. 'चक्खिदियसोदघाणजिब्भाए' इस पदमें चक्षु इन्द्रिय ऐसा कहनेसे चक्षु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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