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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे आवलिय अणायारे चक्खिदिय - सोद - घारण- जिब्भाए । मण-वयण-काय-पासे अवाय - ईहा - सुदुस्तासे ॥१५॥ ९३०१. एदिस्से अत्थो उच्चदे - 'आवलिय' इत्ति भणिदे अप्पाबहुअपयाणमोलि त्ति घेत्तव्वं । अप्पाबहुअपयाणि कमेण चैव उच्चंति; अक्कमेण भणणोवायाभावादो, तेण आवलिग्गहणं ण कायव्यमिदि तो क्खहिं एवं घेत्तव्वं एदेसिं सव्वपदाणत्था ( द्वा)ओ मुहुत्तदियसादिपमाणाओ ण होंति; किंतु संखेज्जावलियमेत्ताओ होंति त्ति जाणावणटुं 'आवलिय' णिसो कदो | 'एगावलिया' त्ति किण्ण घेप्पदे । णः बहुवयणणिदेसेण तासिमाव ३३० अद्धापरिमाणका कथन छह गाथाओंमें है उनमेंसे यह पहली गाथा है अनाकार अर्थात् दर्शनोपयोगका जघन्य काल आगे कहे जानेवाले स्थानोंकी अपेक्षा सबसे थोड़ा है जो संख्यात यावलीप्रमाण है । इससे विशेष अधिक चक्षु इन्द्रियावग्रहका जघन्य काल है । इससे विशेष अधिक श्रोत्रावग्रहका जघन्य काल है । इससे विशेष अधिक घ्राण अवग्रहका जघन्य काल है । इससे विशेष अधिक जिह्वावग्रहका जघन्य काल है । इससे विशेष अधिक मनोयोगका जघन्यकाल है । इससे विशेष अधिक वचनयोगका जघन्य काल है । इससे विशेष अधिक काययोगका जघन्य काल है । इससे विशेष अधिक स्पर्शनेन्द्रियावग्रहका जघन्य काल है । इससे विशेष अधिक किसी भी इन्द्रियसे उत्पन्न होनेवाले अवाय ज्ञानका जघन्य काल है । इससे विशेष अधिक किसी भी इन्द्रिय से उत्पन्न होनेवाले ईहाज्ञानका जघन्य काल है । इससे विशेष अधिक श्रुतज्ञानका जघन्य काल है । इससे विशेष अधिक श्वासोच्छ्वासका जघन्य काल है । १५ ॥ ९ ३०१. इस गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं । गाथामें आये हुये 'आवलिय' पदसे जिन स्थानों में कालका अल्पबहुत्व बतलाया है उन स्थानोंकी पंक्ति लेना चाहिये । शंका- अल्पबहुत्वके स्थान क्रमसे ही कहे जायंगे, क्योंकि उनके एकसाथ कथन करने का कोई उपाय नहीं है, इसलिये गाथामें आवलिय पदका ग्रहण नहीं करना चाहिये ? अर्थात् उन स्थानोंकी आवलि अर्थात् पंक्ति तो स्वतः ही सिद्ध है, क्योंकि उनका कथन क्रमसे ही किया जा सकता है, अतः ऐसी अवस्थामें आवलि पद देना व्यर्थ है । समाधान- यदि ऐसा है तो आवलिपदका अर्थ इसप्रकार ग्रहण करना चाहियेअल्पबहुत्व के इन समस्त स्थानोंके कालका प्रमाण मुहूर्त और दिवस आदि नहीं है, इस बातका ज्ञान करानेके लिये गाथामें 'आवलिय' पदका निर्देश किया है । शंका- यहां एक आवलीका ग्रहण क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, क्योंकि आवलियां बहुत सिद्ध होती हैं । [ पेज्जदोसविहत्ती १ Jain Education International 'आवलिय' पदमें बहुवचनका निर्देश होनेके कारण वे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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