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________________ ३१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? * कस्स कसाओ? $ २८३. णेगम-संगह-ववहार-उजुसुदाणं जीवस्स कसाओ। कुदो ? जीवकसायाणं भेदाभावादो। ण च अभेदे छही विरुज्झइ 'जलस्स धारा' त्ति अभेदे वि छट्ठीविहत्तिदंसणादो। अत्थाणुसारेण सद्दपउत्तीए अभावादो वा अभेदे वि छही जुञ्जदे । तिण्हं सद्दणयाणं ण कस्स वि कसाओ; भावकसाएहिंतो वदिरित्तजीव-कम्मदव्वाणमभावादो। अथवा, ण तस्सेदमिदि पुधभूदेसु जुञ्जदे; अव्ववत्थावत्तीदो। ण कारणस्स होदिः सगसरूवादो उप्पण्णस्स अण्णेहिंतो उप्पत्तिविरोहादो । ण स परोहिंतो उपजइ, उप्पपणस्स उप्पत्तिविरोहादो । ण च अपुधभूदस्स होदि; सगंतोपवेसेण णहस्स सामित्तवि विशेषार्थ-'कषाय क्या है' इसके द्वारा निर्देशका कथन किया है। वस्तुके स्वरूपके अवधारणको निर्देश कहते हैं। निर्देशकी इस परिभाषाके अनुसार कषायके स्वरूपका विचार करने पर नैगमादि चार नयोंकी अपेक्षा क्रोधादि कषायोंका वेदन करनेवाले जीवरूप कषाय सिद्ध होती है, क्योंकि कषाय जीवसे भिन्न नहीं पाई जाती है और प्रारंभके तीन नय तो द्रव्यको स्वीकार करते ही हैं तथा ऋजुसूत्र नय भी व्यंजनपर्यायकी अपेक्षा द्रव्यको स्वीकार करता है। शब्दादि नयोंकी अपेक्षा कषाय क्रोधादिरूप सिद्ध होती है, क्योंकि इन नयोंका विषय द्रव्य न होकर पर्याय है। * कषाय किसके होती है ? ६२८३. नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा जीवके कषाय होती है, क्योंकि इन चारों नयोंकी अपेक्षा जीव और कषायमें भेद नहीं पाया जाता है। यदि कहा जाय कि यदि जीव और कषायमें अभेद है तो अभेदमें 'जीवकी कषाय' इसप्रकार षष्ठी विभक्ति विरोधको प्राप्त होती है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि 'जलकी धारा' यहां अभेदमें भी षष्ठी विभक्ति देखी जाती है। अथवा, अर्थके अनुसार शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती है इसलिये अभेदमें भी षष्ठी विभक्ति बन जाती है। तीनों शब्दनयोंकी अपेक्षा कषाय किसीके भी नहीं होती है, क्योंकि इन नयोंकी दृष्टिमें भावरूप कषायोंसे अतिरिक्त जीव और कर्मद्रव्य नहीं पाया जाता है । अथवा, 'यह उसका है' इसप्रकारका व्यवहार भिन्न दो पदार्थोंमें नहीं बन सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर अव्यवस्थाकी आपत्ति प्राप्त होती है। यदि कहा जाय कि कषायरूप कार्य कारणका होता है अर्थात् कार्यरूप भावकषायके स्वामी उसके कारण जीवद्रव्य और कर्मद्रव्य कहे जा सकते हैं, सो भी बात नहीं है क्योंकि कोई भी कार्य अपने स्वरूपसे उत्पन्न होता है इसलिये उसकी अन्यसे उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि वह कार्य अन्यसे उत्पन्न होता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो उत्पन्न हो चुका है उसकी फिरसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि कषायरूप कार्य अपनेसे अभिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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