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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती १ कोई एकान्त नियम तो नहीं किया जा सकता है। फिर भी जहाँ वक्ताने स्यात् पदका प्रयोग न किया हो वहाँ उसका आशय स्यात् पदके प्रयोगका रहा है ऐसा समझ लेना चाहिये। जिसप्रकार प्रकाशमें दो शक्तियाँ होती हैं एक तो वह अन्धकारका नाश करता है और दूसरे प्रकाश्यभूत पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसीप्रकार प्रत्येक शब्दमें दो शक्तियाँ हैं एक तो वह अपने ही अर्थको कहता है और दूसरे वह अन्य शब्दोंके अर्थका निराकरण भी करता है। इसलिये यदि स्यात् पदका प्रयोग न किया जाय तो प्रत्येक द्रव्यमें विवक्षित शब्दके वाच्यभूत धर्मकी ही सिद्धि होगी और दूसरे धर्मोंका निराकरण हो जायगा, जो कि इष्ट नहीं है । अतः वचनप्रयोगमें स्यात् पदका प्रयोग अवश्य करना चाहिये। यदि न किया गया हो तो वहाँ वक्ताका अभिप्राय स्यात् पदके प्रयोग करनेका रहा है ऐसा समझकर उस वचनप्रयोगकी अर्थके साथ संगति कर लेना चाहिये । इस व्यवस्थाके अनुसार द्रव्यके कथंचित् कषायरसवाले सिद्ध हो जाने पर वह कथंचित् नोकषायवाला और कथंचित् अवक्तव्य आदि धर्मोंवाला भी सिद्ध होता है। रूप रसादि धर्मोंकी व्यंजनपर्यायोंका ही शब्दों द्वारा कथन किया जा सकता है अर्थपर्यायोंका नहीं । अतः पहले भंगमें 'कसाओं पदसे कषायकी व्यंजन पर्यायोंका ग्रहण किया है और सिया' पदसे नोकषाय की व्यंजनपर्यायोंका और कषायनोकषायविषयक अर्थपर्यायोंका ग्रहण किया है। दूसरे भंगमें 'णोकसाओ' पदसे नोकषायविषयकव्यंजनपर्यायोंका और 'सिया' पदसे कषाय की व्यंजनपर्यायोंका और कषाय-नोकषायविषयक अर्थपर्यायोंका ग्रहण किया है । तीसरे भंगमें 'अवत्तव्वं' पदसे कषाय-नोकषायविषयक अर्थपर्यायोंका और 'सिया' पदसे कषाय-नोकषायविषयक व्यंजनपर्यायोंका ग्रहण किया है। इसीप्रकार आगेके संयोगी चार भंगोंमें भी समझ लेना चाहिये । अब प्रश्न स्याद्वादके क्रमवर्तित्व और अक्रमवर्तित्वका रह जाता है। सातों भंगोंमें वस्तुमें रहनेवाले सभी धर्म कहे तो क्रमसे गये हैं पर 'सिया' पदके द्वारा उनकी अक्रमवृत्ति सूचितकी गई है। इस पर शंकाकारका कहना है कि यहाँ पर 'सिया' पद अशेष धर्मोंकी अक्रमवृत्तिको भले ही सूचित करे पर 'कथञ्चित्केनचित्कश्चित्' इत्यादि गाथाके आधारसे तो मालूम होता है कि जो वस्तु वर्तमानमें विवक्षित स्वरूपसे है वह अन्य काल में उस स्वरूपसे नहीं रहती। इसप्रकार जैसे वस्तुमें कालभेदसे स्वरूपभेद हो जाता है वैसे ही साधनादिकके भेदसे भी वस्तुमें भेद हो जाता है, इसलिये प्रतीत होता है कि स्याद्वाद क्रमसे रहता है फिर सातवें भंगमें 'सिया' पदके द्वारा अशेष धर्मोंकी अक्रमवृत्ति क्यों सूचितकी गई है। इस पर वीरसेन स्वामीने जो उत्तर दिया है वह मार्मिक है । वे लिखते हैं 'कथञ्चित् केनचित्कश्चित्' इत्यादि पर्यायोंके द्वारा जो स्याद्वादके सात भंग कहे हैं वे उपलक्षण रूपसे कहे गये हैं । इससे निश्चित होता है कि प्रत्येक द्रव्यमें क्रमवर्ती और अक्रमवर्ती अनेक धर्म पाये जाते हैं। इसलिये स्याद्वाद क्रमवृत्ति भी है और अक्रमवृत्ति भी, यह सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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