SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा०१३-१४ कसाए णिक्खेवपरूवणां ३०७ "अन्तर्भूतैवकारार्थाः गिरः सर्वाः स्वभावतः । एवकारप्रयोगोऽयमिष्टतो नियमाय सः ॥१२३॥ निरस्यन्ती परस्यार्थ स्वार्थ कथयति श्रुतिः । तमो विधुन्वती भास्यं यथा भासयति प्रभा ॥१२४॥" २७२. एवं चेव होदु चेण; एक्कम्मि चेव माहुलिंगफले तित्त-कडुवंबिल-मधुररसाणं रूव-गंध-फास-संठाणाईणमभावप्पसंगादो। एदं पि होउ चे ण; दव्वलक्खणाहै एक तो अपने प्रतिपक्षी अन्धकारको दूर करता है दूसरे अपने धर्म प्रकाशको व्यक्त करता है उसीप्रकार कषाय शब्द अपने प्रतिपक्षीभूत सभी अर्थों का निराकरण करेगा और अपने अर्थ कषायको ही कहेगा। इस विषयमें दो उपयोगी श्लोक दिये जाते हैं "जितने भी शब्द हैं उनमें स्वभावसे ही एवकारका अर्थ छिपा हुआ रहता है, इसलिये जहां भी एवकारका प्रयोग किया जाता है वहां वह इष्टके अवधारणके लिये किया जाता है ।।१२३॥" "जिसप्रकार प्रभा अन्धकारका नाश करती है और प्रकाश्य पदार्थों को प्रकाशित करती है उसीप्रकार शब्द दूसरे शब्दके अर्थका निराकरण करता है और अपने अर्थको कहता है ॥१२४॥" __ तात्पर्य यह है कि यदि कषाय शब्द द्रव्यके केवल कषायरूप अर्थको ही कहे और जो कषायशब्दके वाच्य नहीं हैं ऐसे अन्य रस, रूप, स्पर्श और गन्ध आदिका निराकरण करे तो द्रव्य केवल कषायरसवाला ही फलित होगा परन्तु सर्वथा एक धर्मवाला द्रव्य तो पाया नहीं जाता है, इसलिये वाच्यका अभाव हो जानेसे कषाय शब्दका कोई वाच्य ही नहीं रहेगा और इसप्रकार 'स्यात्' शब्दके प्रयोगके बिना कषाय शब्द अनुक्ततुल्य हो जायगा। २७२. शंका-स्यात् पदके प्रयोगके बिना यदि कषाय शब्द कषायरूप अर्थसे भिन्न अर्थों का निराकरण करके अपने ही अर्थको कहता है तो कहे ? समाधान-नहीं, क्योंकि यदि ऐसा मान लिया जावे तो एक ही बिजोरेके फलमें पाये जानेवाले कषायरसके प्रतिपक्षी तीते, कडुए, खट्टे और मीठे रसके अभावका तथा रूप, गन्ध स्पर्श और आकार आदिके अभावका प्रसंग प्राप्त हो जायगा । शंका-स्यात् शब्दके प्रयोगके बिना यदि एक ही बिजोरेमें कषायरसके प्रतिपक्षी उक्त रसादिकका अभाव प्राप्त होता है तो हो जाओ ? समाधान-नहीं, क्योंकि वस्तुमें विवक्षित स्वभावको छोड़कर शेष स्वभावोंका अभाव मानने पर द्रव्यके लक्षणका अभाव हो जाता है। और उसके अभाव हो जानेसे द्रव्यके (१) पक्कम्मि अ०, आ०। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy