SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८६ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? शिरीषकषायः। कसाओ णाम दव्वस्सेव ण अण्णस्स "णिग्गुणा हु गुणा ॥१२१॥” इदि वयणादो। तत्थ वि पोग्गलदव्वस्सेव "रुव-रस-गंध-पासवंतो पोग्गला ॥१२२॥” इदि वयणादो। तदो दव्वेण कसायस्स विसेसणमणत्थयमिदि; णाणत्थय; दुण्णयपरिसेहफलत्तादो । तं जहा, ण दुण्णएसु पुधभूदं विसेसणमत्थि; दव्व-खेत्त-काल-भावेहि एयंतेण पुधभूदस्स अत्थित्ताभावादो । णापुधभूदमवि; दव्व-खेत्त-काल-भावेहि एयंतेण अपुधभुदस्स विसेसणत्तविरोहादो। णोहयपक्खो वि; दोसैं वि पक्खेसु उत्तदोसाणमकमेण णिवायप्पसंगादो। ण धम्मधम्भिभावो वि तत्थ संभवइ; एयंतेण पुधभूदेसु अपुधभूदेसु य तदणुववत्तीदो। भजणावादे पुण सव्वं पि घडदे। तं जहा, तिकालगोयराणंतपजायाणं समुच्चओ अजहउत्तिलक्खणो धम्मी, तं चेव दव्वं, तत्थ दवणगुणोवलंभादो। तिकालगोयराणंत शंका-कषाय द्रव्यका ही धर्म है अन्यका नहीं, क्योंकि “गुण स्वयं अन्य गुणोंसे रहित होते हैं ॥१२१॥" ऐसा वचन पाया जाता है। अतः कषाय गुणका धर्म तो हो नहीं सकता है । तथा द्रव्यमें भी वह पुद्गल द्रव्यका ही धर्म है, क्योंकि "रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पुद्गलमें ही पाये जाते हैं ॥१२२॥" ऐसा आगमका वचन है, इसलिये जब कषाय द्रव्यका ही धर्म है तो द्रव्यको कषायके विशेषणरूपसे ग्रहण करना निष्फल है अर्थात् कषायके साथ द्रव्य विशेषण नहीं लगाना चाहिये। समाधान-कषायके साथ द्रव्य विशेषण लगाना निष्फल नहीं है, क्योंकि उसका फल दुर्नयोंका निषेध करना है। उसका खुलासा इसप्रकार है-दुर्नयोंमें विशेष्यसे विशेषण सर्वथा भिन्न तो बन नहीं सकता है, क्योंकि जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा सर्वथा भिन्न है उसका विशेषणरूपसे अस्तित्व नहीं पाया जाता है। अर्थात् वह विशेषण नहीं हो सकता है। तथा दुर्नयोंमें विशेषण विशेष्यसे सर्वथा अभिन्न भी नहीं बन सकता है, क्योंकि जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा सर्वथा अभिन्न है उसको विशेषण माननेमें विरोध आता है। उसीप्रकार दुर्नयोंमें सर्वथा भेद और सर्वथा अभेदरूप दोनों पक्षोंका ग्रहण भी नहीं बन सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर दोनों पक्षोंमें पृथक् पृथक् जो दोष दे आये हैं वे एकसाथ प्राप्त होते हैं । दुर्नयोंमें धर्मधर्मिभाव भी नहीं बन सकता है, क्योंकि सर्वथा भिन्न और सर्वथा अभिन्न पदार्थों में धर्मधर्मिभाव नहीं बन सकता है। परन्तु स्याद्वादके स्वीकार करने पर सब कुछ बन जाता है। जिसका खुलासा इसप्रकार है-त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायोंके कथंचित् तादात्म्यरूप समुदायको धर्मी कहते हैं और वही द्रव्य कहलाता है, क्योंकि उसमें द्रवणगुण अर्थात् एक पर्यायसे दूसरी पर्यायको प्राप्त होनेरूप धर्म पाया जाता है। तथा नयकी अपेक्षा कथंचित् (१) तुलना-"द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।"-त० सू० ५।४०। (२) तुलना-स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः।"-त० सू० ५।२३। (३)-सु प-आ० । (४) धम्मदव्वम्मिभा-अ०, आ० । धम्मदम्बियभा-स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy