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________________ २८४ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पेज्जदोसविहत्ती ? पच्चओ दुविहो-अब्भतरो बाहिरो चेदि । तत्थ अभंतरो कोधादिदव्वकम्मक्खंधा अणंताणंतपरमाणुसमुदयसमागमसमुप्पण्णा जीवपदेसेहि एयत्तमुवगया पयडि-हिदि-अणुभागर्भयभिण्णा । बाहिरो कोधादिभावकसायसमुप्पत्तिकारणं जीवाजीवप्पयं बज्झदव्वं । तत्थ कसायकारणत्तं पडि भेदाभावेण समुप्पत्तियकसाओ पच्चयकसाए पविहो।। ६२३८. आदेसकसाओ वि ठवणकसाए पविसदि । कुदो ? सब्भावठवणप्पयआदेसकसायस्स सब्भावासब्भावष्टवणावगाहिट्ठवणाणिक्खेवम्मि उवलंभादो। * उर्जुसुदो एदे च ठवणं च अवणेदि। शंका-समुत्पत्तिककषायका प्रत्ययकषायमें अन्तर्भाव क्यों हो जाता है ? समाधान-क्योंकि आभ्यन्तर प्रत्यय और बाह्यप्रत्ययके भेदसे प्रत्यय दो प्रकारका है। उनमेंसे अनन्तानन्त परमाणुओंके समुदायके समागमसे उत्पन्न हुए और जीवप्रदेशोंके साथ एकत्वको प्राप्त हुए तथा प्रकृति स्थिति और अनुभागके भेदसे भिन्न क्रोधादिरूप द्रव्यकर्मोके स्कन्धको आभ्यन्तरप्रत्यय कहते हैं । तथा क्रोधादिरूप भावकषायकी उत्पत्तिका कारणभूत जो जीव और अजीवरूप बाह्यद्रव्य है वह बाह्यप्रत्यय है। कषायके कारणरूपसे समुत्पत्तिककषाय और प्रत्ययकषाय इन दोनोंमें कोई भेद नहीं है, इसलिये समुत्पत्तिककषाय प्रत्ययकषायमें गर्भित हो जाती है। २३८. उसीप्रकार उक्त दोनों नयोंकी अपेक्षा आदेशकषाय भी स्थापनाकषायमें अन्तर्भूत हो जाती है, क्योंकि आदेशकषाय सद्भावस्थापनारूप है और स्थापनानिक्षेप सद्भाव और असद्भाव स्थापनारूप है अतः आदेशकषायका स्थापनाकषायमें अन्तर्भाव पाया जाता है। विशेषार्थ-भेदाभेद नैगमनयका विषय है संग्रहनय और व्यवहार नयका नहीं । अतः समुत्पत्तिककषाय और आदेशकषायको ये दोनों नय नहीं स्वीकार करते हैं, क्योंकि समुत्पत्तिककषाय प्रत्ययकषायसे और आदेशकषाय स्थापनाकषायसे भिन्न भी है और अभिन्न भी। जब प्रत्ययके दो भेद करके बाह्यप्रत्ययको अलग गिनाते हैं तब वह समुत्पत्तिककषाय कहा जाता है और जब प्रत्ययसामान्यकी अपेक्षा विचार किया जाता है तब समुत्पत्तिककषायका प्रत्ययकषायमें अन्तर्भाव हो जाता है । इसीप्रकार जब स्थापनाके दो भेद करके सद्भावस्थापनाको अलग गिनाते हैं तब वह आदेशकषाय कही जाती है और जब स्थापना सामान्यकी अपेक्षा विचार करते हैं तब उसका स्थापनाकषायमें अन्तर्भाव हो जाता है। यह सब विवक्षा संग्रहनय और व्यवहारनयमें घटित नहीं होती है। अतः संग्रह और व्यवहारनय इन दोनों कषायोंको नहीं स्वीकार करते हैं, यह ठीक कहा है। * ऋजुसूत्रनय इन दोनोंको अर्थात् समुत्पत्तिककषाय और आदेशकषायको (१) “ऋजुसूत्रस्तु वर्तमानार्थनिष्ठत्वात् आदेशसमुत्पत्तिस्थापना नेच्छति ।"-आचा० नि० शी. गा० १९०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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