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________________ गा० १३-१४ ] दोसे णिक्खेवपरूवणा २८१ १२३१. एत्थ चोदओ भणदि दव्वादो दोसो पुधभूदो अपुधभूदो वा? ण ताव पुधभूदो; तस्स एसो दोसो त्ति संबंधाणुववत्तीदो। ण च एसो अण्णसंबंधणिबंधणो; अणवत्थावत्तीदो। ण च अपुधभूदो एकम्मि विसेसणविसेसियभावाणुववत्तीदो त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-सिया पुधभूदं पि विसेसणं, सेंधवसादियाए सावियाए अजजो खवणाहिओ पूजिदो त्ति सावियादो पुधभूदाए वि सादियाए विसेसणभावेण वट्टमाणाए उवलंभादो। णाणवत्था वि; पच्चासत्तिणिबंधणस्स विसेसणस्स अणवत्थाभावादो। सिया अपुधभूदं पि विसेसणं; णीलुप्पलमिदि उप्पलादो देसादीहि अभिण्णस्स णीलगुणस्स विसेसणभावेण वद्दमाणस्स उवलंभादो । तम्हा भयणावादम्मि ण एस दोसो ति। ६२३१.शंका-यहाँ पर शंकाकार कहता है कि द्रव्यसे दोष भिन्न है कि अभिन्न । भिन्न तो हो नहीं सकता है, क्योंकि भिन्न मानने पर 'यह दोष इस द्रव्यका है' इस प्रकारका संबन्ध नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि किसी भिन्न संबन्धके निमित्तसे 'यह दोष इस द्रव्यका है' इसप्रकारका संबन्ध बन जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में अनवस्था दोष प्राप्त होता है । अर्थात् जैसे 'यह दोष इस द्रव्यका है' इस व्यवहारके लिये एक अन्य सम्बन्ध मानना पड़ता है उसी तरह उस सम्बन्धको उस द्रव्य और दोषका माननेके लिये अन्य सम्बन्ध मानना पड़ेगा और इसप्रकार अनवस्था दोष प्राप्त होगा। यदि कहा जाय कि द्रव्यसे दोष अभिन्न है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यसे दोषको अभिन्न मानने पर द्रव्य और दोष ये दो न रहकर एक हो जाते हैं और एक पदार्थमें विशेषण-विशेष्यभाव नहीं बन सकता है। समाधान-अब यहाँ इस शंकाका परिहार करते हैं-विशेष्यसे विशेषण कथंचित् पृथग्भूत भी होता है। जैसे, 'सिन्धुदेशकी साड़ीसे युक्त श्राविकाने आज आर्य क्षपणाधिपकी ( आचार्यकी) पूजा की' यहाँ पर श्राविकासे साड़ी भिन्न है तो भी वह श्राविकाके विशेषणरूपसे पाई जाती है। ऊपर विशेषणको विशेष्यसे भिन्न मानकर जो अनवस्था दोष दे आये हैं वह भी नहीं आता है, क्योंकि जो विशेषण संबन्धविशेषके निमित्तसे होता है उसमें अनवस्था दोष नहीं आता है। तथा कथंचित् अभिन्न भी विशेषण होता है। जैसे, नीलोत्पल । यहाँ पर नील गुण उत्पल (कमल) से देशादिककी अपेक्षा अभिन्न है तो भी वह उसके विशेषणरूपसे पाया जाता है। इसलिये विशेषणको विशेष्यसे सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न मानकर जो दोष दिये हैं वे भजनावाद अर्थात् स्याद्वादमें नहीं आते हैं। इसप्रकार द्रव्य और दोषमें अनेकान्त दृष्टिसे भेद और अभेद बतलाकर जिस (१) खवणाहिण पू-अ०, आ०, स० । ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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