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________________ २८० जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोस विहत्ती १ भावाद । तत्थ संकेयग्गहणं दुग्घडं त्ति चे १ होदु णाम, किंतु णयस्स विसओ परूविज्ञ, ण च सुणएसु किं पि दुग्धड मत्थि । अथवा, बज्झत्थे णामस्स पत्ती मा होउ णाम, तह वि णामणिक्खेवो संभवइ चेवः अप्पाणम्मि सव्वसद्दाणं पउत्तिणादो । ण च बज्झत्थे वट्टमाणो दोससहो णामणिक्खेवो होदि; विरोहादो । $२३०. णाम-डवणा-आगमदव्व णोआगमदव्वजाणुगसरीर-भवियणिक्खेवा सुगमा त्ति कट्टु तेसिमत्थमभणिय तव्वदिरित्तणोआगम दव्वदोससरूवपरूवाहमुत्तरमुत्तं भणदि* णोआगमदव्वदोसो णाम जं दव्वं जेण उवघादेण उवभोगं ण एदि तस्स दव्वस्स सो उवघादो दोसो णाम । है । और इसप्रकार शब्दनय में नामनिक्षेप बन जाता है । शंका- यदि ऐसा है तो शब्दनय में संकेतका ग्रहण करना कठिन हो जायगा, अर्थात् यदि शब्दनय भिन्न भिन्न घटोंमें प्रवृत्त होनेवाले घट शब्दोंको भिन्न भिन्न मानता है तो शब्दन में 'इस घट शब्दका यह घटरूप अर्थ है' इसप्रकारके संकेतका ग्रहण करना कठिन हो जायगा, क्योंकि उसके मतसे भिन्न भिन्न वाच्योंके वाचक भी भिन्न भिन्न ही हैं और ऐसी परिस्थिति में व्यक्तिशः संकेत ग्रहण करना शक्य नहीं है ? समाधान - शब्दनय में संकेतका ग्रहण करना यदि कठिन होता है तो होओ किन्तु यहां तो शब्द के विषयका कथन किया है । दूसरे सुनयोंकी प्रवृत्ति सापेक्ष होती है इसलिये उनमें कुछ भी कठिनाई नहीं है । अथवा शब्दनयकी अपेक्षा बाह्य पदार्थ में नामकी प्रवृत्ति मत होओ तो भी शब्दनयमें नामनिक्षेप संभव ही है, क्योंकि सभी शब्दोंकी अपने आपमें प्रवृत्ति देखी जाती है । अर्थात् जिस समय घट शब्दका घटशब्द ही वाच्य माना जाता है बाह्य घट पदार्थ नहीं उस समय शब्दनय में नामनिक्षेप बन जाता है । यदि कहा जाय कि बाह्य पदार्थ में विद्यमान दोष शब्द नामनिक्षेप होता है, अर्थात् जब दोष शब्द बाह्य पदार्थ में प्रवृत्त होता है तभी वह नामनिक्षेप कहलाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है । अर्थात् इस नयकी दृष्टिसे दोष शब्द की प्रवृत्ति स्वात्मामें होती है । बाह्य अर्थ में उसकी प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है । २३०. नामनिक्षेप, स्थापनानिक्षेप, आगमद्रव्यनिक्षेप और नोआगमद्रव्यनिक्षेपके दो भेद ज्ञायकशरीर और भावी ये सब निक्षेप सुगम हैं ऐसा समझकर इन सब निक्षेपोंके स्वरूपका कथन नहीं करके तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यदोष के स्वरूपका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं । * जो द्रव्य जिस उपघात के निमित्तसे उपभोगका नहीं प्राप्त होता है, वह उपघात उस द्रव्यका दोष है । इसे ही तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यदोष समझना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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