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________________ २७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? * एवं णेगमस्स। $ २२१. कुदो ? एक्कम्मि चेव वत्थुम्मि कमेण अक्कमेण च हिद-सुह-पियभावभुवगमादो, हिद-सुह-पियदव्वाणं पुधभूदाणं पि पेजभावेण एअत्तब्भुवगमादो च । * संगह-ववहाराणं उजुसुदस्स च सव्वं दव्वं पेजं । ६२२२. किंचि दव्व णाम तं सव्वं पेजं चेव कस्स वि जीवस्स कम्हि वि काले सव्वदव्वाणं पेजभावेण वट्टमाणाणमुवलंभादो । तं जहा, विसं पि पेजं, विसुप्पण्णजीवाणं कोढियाणं मरणमारणिच्छाणं च हिद-सुह-पियकारणत्तादो। एवं पत्थरतगिंधणग्गिच्छुरूप सामग्री सात भागोंमें बट जाती है। इस पेज्जभावका अन्तरंग कारण स्त्रीवेद आदि उपर्युक्त सात कर्मोंका उदय है। उन्हींके निमित्तसे हितादिरूप सात प्रकारके भाव प्रकट होते हैं। पर किस कर्मके उदयसे कौन भाव पैदा होता है ऐसा विवेक नहीं किया जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक कर्मके निमित्तसे ये सात भाव हो सकते हैं । इसीप्रकार उपर्युक्त द्रव्य ही नोर्म हैं अन्य नहीं या उपर्युक्त अपेक्षाभेद ही उनकी उत्पत्तिके कारण हैं अन्य नहीं, ऐसा एकान्त नहीं समझना चाहिये । ये उपलक्षणमात्र हैं। इनके स्थान पर हितपेज्ज आदिरूप और दूसरे द्रव्य भी हो सकते हैं और उनके वैसा होनेमें अपेक्षाभेद भी हो सकता है। * यह तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यपेज्जका सात भङ्गरूप कथन नैगमनयकी अपेक्षासे है। ६ २२१. शंका-उक्त कथन नैगमनयकी अपेक्षासे क्यों है ? समाधान-चूंकि एक ही वस्तुमें क्रमसे और अक्रमसे हित, सुख और प्रियरूप भाव स्वीकार किया है । तथा यदि हितद्रव्य, सुखद्रव्य और प्रियद्रव्यको पृथक् पृथक् भी लेवें तो भी उनमें पेज्जरूपसे एकत्व माना गया है, इसलिये यह सब कथन नैगमनयकी अपेक्षासे समझना चाहिये । अर्थात् यहां हित, सुख और प्रियको भेद और अभेदरूपसे स्वीकार किया है, इसलिये यह नैगमनयका विषय है। * संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा समस्त द्रव्य पेज्जरूप है। ६२२२. जगमें जो कुछ भी पदार्थ हैं वे सब पेज्ज ही हैं, क्योंकि किसी न किसी जीवके किसी न किसी कालमें सभी द्रव्य पेज्जरूप पाये जाते हैं । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-विष भी पेज्ज है, क्योंकि विषमें उत्पन्न हुए जीवोंके, कोढी मनुष्योंके और मरने तथा मारनेकी इच्छा रखनेवाले जीवोंके विष क्रमसे हित, सुख और प्रियभावका कारण देखा जाता है । इसीप्रकार पत्थर, घास, ईंधन, अग्नि और सुधा आदिमें जहां जिसप्रकार पेज्जभाव घटित हो वहां उसप्रकारसे पेज्जभावका कथन कर लेना चाहिये । (१) सव्वदव्वं आ०, स० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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