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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ भूतस्य पुंसः स्वास्थ्याल्हादनहेतुत्वात् । यदाल्हादनहेतुस्तत्प्रियमेवेति द्राक्षाफलं प्रियमपीति किन्नोच्यते ? सत्यमेतत्, किन्तु द्विसंयोगविवक्षायां न त्रिसंयोगाः; विरोधात् १ । पिचुमन्दः हितः प्रियश्च, तिक्तप्रियस्य पित्तज्वराभिभूतस्य स्वास्थ्यप्रेमहेतुत्वात् । तिक्तप्रियस्य निम्बः आल्हादनहेतुरिति सुखमपि किन्न भवेत् इति चेत् । न तत्र तथाविवक्षाभावात् २ । क्षीरं सुखं प्रियश्च, आमव्याध्यभिभूतस्य मधुरप्रियस्याल्हादनप्रेमहेतुत्वात् , न हितम् आमवर्द्धनत्वात् ३। एवमेते त्रयो द्विसंयोगभङ्गाः । गुडक्षीरादयो हितं सुखं प्रियश्च भवन्ति; स्वस्थस्य प्रियसुखहितहेतुत्वात् १ । एवं त्रिसंयोगजः एक एव भङ्गः । सर्वभङ्गसमासः सप्त ७ । अत्रोपयोगी श्लोकः
"तिक्ता च शीतलं तोयं पुत्रादिर्मुद्रिका-(म॒द्वीका-) फलम् ।
निम्बक्षीरं ज्वरातस्य नीरोगस्य गुडादयः ॥१२०॥" शंका-जो आनन्दका कारण होता है वह अप्रिय न होकर प्रिय ही होता है इसलिये 'दाख प्रिय भी है' ऐसा क्यों नहीं कहा है ?
समाधान-यह कहना ठीक है, परन्तु यहाँ पर द्विसंयोगी भङ्गकी विवक्षा है इसलिये त्रिसंयोगी भङ्ग नहीं कहा है, क्योंकि द्विसंयोगीकी विववक्षामें त्रिसंयोगी भङ्गके कहने में विरोध आता है।
नीम हितरूप भी है और प्रिय भी है, क्योंकि जिसे कड़वी वस्तु प्रिय है ऐसे पित्तउबरसे पीड़ित रोगीके स्वास्थ्य और प्रेम इन दोनोंका हेतु देखा जाता है ।
शंका-जिसे कडुआ रस प्रिय है उसको नीम आनन्दका कारण भी देखा जाता है इसलिये नीम सुखरूप भी क्यों नहीं कहा है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि द्विसंयोगी भङ्गमें नीम सुखरूपसे विवक्षित नहीं है।
दूध सुखकर भी होता है और प्रिय भी होता है, क्योंकि जो आमव्याधिसे पीड़ित है और जिसे मधुर रस प्रिय है उसके दूध आनन्द और प्रेमका कारण देखा जाता है । किन्तु आमव्याधिवालेको दूध हितरूप नहीं है, क्योंकि वह आमरोगको बढ़ाता है। इसप्रकार ये तीन द्विसयोगी भङ्ग हैं।
गुड़ और दूध आदि हितरूप, सुखकर और प्रिय होते हैं, क्योंकि वे स्वस्थ पुरुषके प्रेम, सुख और हितके कारण देखे जाते हैं। इसप्रकार त्रिसंयोगी भङ्ग एक ही होता है। इन सभी भङ्गोंका जोड़ सात होता है । इस विषयमें उपयोगी श्लोक देते हैं
"पित्तज्वरवालेको उसके उपशमनका कारण होनेसे कुटकी हित द्रव्य है । प्यासेको आनन्दका कारण होनेसे ठंडा पानी सुखरूप है। अपनी रुचिका पोषक होनेसे पुत्रादिक
(१) सुखप्रीतिहे-स० । (२) “तिक्ता तु कटुरोहिण्याम्"-अनेकार्थसं० २।१७४।
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