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________________ वाचियवाचयभाववियारो गा० १३-१४ ] पुरिसोवग्गहाणं पादेकमेयत्तन्भुवगमादो । $२१५. अंथ स्यार्थे (स्यात्) न पदवाक्यान्यर्थप्रतिपादिकानि; तेषामसत्वात् । कुतस्तदसत्त्वं-[म् ? अनुपलम्भात । सोऽपि कुतः १ ] वर्णानां क्रमोत्पन्नानमनित्याना - मेतेषां नामधेयाति "समुदयाभावात् । न च तत्समुदये 'नुपलम्भात् । न च कारक, पुरुष और उपग्रह में से प्रत्येकका अभेद स्वीकार करता है । अर्थात् ऋजुसूत्र नय लिङ्गादिकके भेदसे अर्थको ग्रहण नहीं करके अभेदको स्वीकार करता है इसलिये उसमें द्रव्यनिक्षेप बन जाता है । विशेषार्थ - शब्दादि तीनों नयोंके विषय नाम निक्षेप और भाव निक्षेप बताये हैं, द्रव्य और स्थापना नहीं । स्थापना निक्षेप तो किसी भी पर्यायार्थिकनय में संभव नहीं है यह तो ऊपर ही कह आये हैं। रही द्रव्यनिक्षेपकी बात, सो यह ऋजुसूत्र नयमें तो बन जाता है, क्योंकि व्यंजनपर्यायकी अपेक्षा अनेक पर्यायोंमें एकत्व या अभेद माना जा सकता है । अथवा ऋजुसूत्रनय लिंगादिकके भेदसे वस्तुको भेदरूपसे ग्रहण नहीं करता है इसलिये भी ऋजुसूत्रनयका विषय द्रव्यनिक्षेप हो जाता है । पर शब्दादिक तीनों नय द्रव्यनिक्षेपको नहीं ग्रहण करते हैं, क्योंकि ये नय वर्तमान पर्याय को ग्रहण करते हुए भी लिंगादिकके भेदसे ही उसे ग्रहण करते हैं । ऊपर जो शुद्ध ऋजुसूत्र में द्रव्यनिक्षेपका निषेध किया है उसका कारण शुद्ध ऋजुसूत्रनयका द्रव्यगत भेदोंको नहीं ग्रहण करना बताया है और यहां जो शुद्ध ऋजुसूत्र में द्रव्यनिक्षेपका विधान किया है उसका कारण ऋजुसूत्रनयका पर्यायको लिंगादि के अभेद से अभेदरूप ग्रहण करना बताया है, अतः दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है । ६२१५. शंका - शब्दनयकी दृष्टिमें वाचक शब्दों में लिङ्ग आदिकी अपेक्षा भेद होने से भूत अर्थों में भेद स्वीकार किया जाता है, किन्तु जब पद और वाक्य अर्थका कथन ही नहीं करते, क्योंकि उनका अभाव है, तब उसमें वाच्यवाचक्रभावमूलक नामनिक्षेप कैसे बन सकता है ? प्रतिशंका - पद और वाक्योंका अभाव कैसे है ? शंकाकार - क्योंकि वे पाये नहीं जाते हैं । २६५ Jain Education International प्रतिशंका- वे पाये क्यों नहीं जाते हैं ? शंकाकार - क्योंकि वर्ण क्रमसे उत्पन्न होते हैं और अनित्य हैं, इसलिये उनका समु (१) अस्यार्थः न स० । अथस्यार्थे न ता० । ( २ ) - स्व ( त्रु० ९ ) वर्णा- ता०, स० ।-स्वप्रसङ्गात् प्रतिपन्नवर्णा- अ०, आ० । (३) तुलना - " प्रत्येकमप्रत्यायकत्वात् साहित्याभावात् नियतक्रमवर्तिनामयोगपद्येन संभूयकारित्वानुपपत्तेः नानावक्तृप्रयुक्तेभ्यश्च प्रत्ययादर्शनात् क्रमविपर्यये यौगपद्ये च । तस्माद् वर्णव्यतिरेकी वर्णेभ्योऽसम्भवन्नर्थे प्रत्ययः स्वनिमित्तमुपकल्पयति । " - स्फोटसि० पृ० २८ । स्फोट० न्याय० पु० २ । न्यायकुम० पृ० ७४५, टि० १० । ( ४ ) -नां नित्याना ( त्रु० ४) मधेयानि समुदयाभावात् स० ।-नां नित्यानामेतेषां नामधेयातिरूपवीजसद्भावात् समुदयाभावात् अ०, आ० 1 - नामनित्यानामेतेषां नामधेयाति (०५) समुदयाभावात् ता० । ( ५ ) - य (त्रु० ६) नुप - ता०, स० ।-य संकेतपदवाक्यानुप-अ०, आए । ३४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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