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________________ गा०१३-१४] णयपरूवणं २४७ धर्मादीनामपरिणामित्वविरोधात् । न क्षणिकमस्ति भावाभावाभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । न क्षणिकं प्रत्यक्षेण विषयीक्रियते तत्र तवृत्तिविरोधात् , अनुपलम्भाच्च । अत्रोपयोगी श्लोक: " ... रू ..... .... ....।। ....... प्रत्यक्षविज्ञानग्राहक ना मानवत् ॥१४॥" 8 २०४. नानुमानमपि तद्ग्राहकम्; निर्विकल्पे सविकल्पस्य वृत्तिविरोधात् । ततो न क्षणिकमस्ति । नोभयरूपम् ; विरोधात् । नानुभयरूपम् ; निःस्वभावतापत्तेः। तथा वस्तु सर्वथा क्षणिक भी नहीं है, क्योंकि सर्वथा क्षणिक वस्तुमें भाव और अभाव दोनों प्रकारसे अर्थक्रिया नहीं बन सकती है । अर्थात् क्षणिक वस्तु जब भावरूप होती है तब भी अर्थक्रिया नहीं कर सकती, क्योंकि जिस क्षणमें वह उत्पन्न होती है उस क्षणमें तो कुछ काम कर सकना उसके लिये संभव नहीं है वह क्षण तो उसके आत्मलाभका है और दूसरे क्षणमें नष्ट हो जाती है इसलिये दूसरे क्षणमें भी उसमें अर्थक्रिया नहीं बन सकती है। तथा अभावरूप दशामें भी वह अर्थक्रिया नहीं कर सकती है, क्योंकि जो वस्तु नष्ट हो जाती है उसमें अर्थक्रिया नहीं हो सकती है। तथा सर्वथा क्षणिक वस्तु प्रत्यक्षका विषय नहीं है, क्योंकि सर्वथा क्षणिक वस्तुमें प्रत्यक्षकी प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है और प्रत्यक्षके द्वारा सर्वथा क्षणिक वस्तुका ग्रहण पाया भी नहीं जाता है। इस विषयमें उपयोगी श्लोक देते हैं ..... .... .... .... ... .... ..... .... .... ... .... .... .... .... .... ... .... ॥१॥" २०४. अनुमान भी सर्वथा क्षणिक वस्तुका ग्राहक नहीं है, क्योंकि सर्वथा क्षणिक वस्तु निर्विकल्प है, अतः उसमें सविकल्प ज्ञानकी प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है। अतः सर्वथा क्षणिक वस्तु नहीं बनती है। सर्वथा नित्यानित्यरूप वस्तु भी सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि सर्वथा नित्यता और सर्वथा अनित्यताका परस्परमें विरोध है अतः वे दोनों धर्म एक (१) "ततः सूक्तं क्षणिकपक्षो बुद्धिमद्भिरनादरणीयः सर्वथा अर्थक्रियाविरोधात् नित्यत्वकान्तवत् । नन्वर्थक्रिया कार्यकारणरूपा सत्येव कारणे स्यादसत्येव वा। सत्येव कारणे यदि कार्य त्रैलोक्यमेकक्षणवत्ति स्यात्, कारणक्षणकाले एव सर्वस्योत्तरोत्तरक्षणसन्तानस्य भावात् ततः सन्तानाभावात् पक्षान्तरासंभवाच्च । यदि पुनरसत्येव कारणे कार्य तदा कारणक्षणात् पूर्वं पश्चाच्चानादिरनन्तश्च काल: कार्यसहितः स्यात् कारणाभावाविशेषात् ।"-अष्टश०, अष्टसह० १० १८७, ९१ । न्यायकुमु० पृ० ३७९ । "क्षणिकेष्वपि इत्यादिना भदन्तयोगसेनमतमाशङ्कते क्रमेण युगपच्चापि यतस्तेऽर्थक्रियाकृतः। न भवन्ति ततस्तेषां व्यर्थः क्षणिकताश्रयः।"-तत्त्वसं० का ४२८। क्षणिकस्यापि भावस्य सत्त्वं नास्त्येव सोऽपि हि। क्रमेण युगपद्वापि न कार्यकारणे क्षमः ।"-न्यायम० पृ० ४५३ । न्यायवा० ता० ३।२।१४। विधिवि० टी० न्याय० पृ० १३० । प्रश० किरणा० पृ० १४४ । (२) कः (त्रु० १९) प्रत्यय-ता० स० अ० आ० । (३) चानुमा-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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