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________________ २४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ प्रत्यभिज्ञान-सन्धानप्रत्ययाभ्यां बहिरङ्गान्तरङ्गवस्तुनो नित्यत्वमूह्यत इति चेत्न; नित्यैकान्ते प्रत्यस्तमितपूर्वापरीभावे प्रेत्यभिज्ञान-सन्धानप्रत्यययोरसत्त्वात् । व्यतिरेकप्रत्ययो भ्रान्त इति चेत्न; बाधकप्रमाणमन्तरेण तद्भ्रान्त्यनुपपत्तेः । अन्वयप्रत्ययस्तद्बाधक इति चेत्, व्यतिरेकप्रत्ययः [कथन तद्बाधकः १ ननु धर्मादयोऽपरिणामिनो नित्यैकरूपेणावस्थिता दृश्यन्ते इति चेत्, न;] जीवपुद्गलेषु सक्रियेषु परिणमत्सु तदुपकारकाणां प्रसंग यहां भी प्राप्त होता है, इसलिये नित्य वस्तु प्रमाणका विषय नहीं हो सकती है। शंका-प्रत्यभिज्ञान प्रत्ययसे बहिरंग वस्तुकी और अनुसंधान प्रत्ययसे अन्तरंग वस्तुकी नित्यताका तर्क किया जा सकता है। अर्थात् 'यह वही वस्तु है' इस प्रकारके ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। तथा यही ज्ञान जब अन्तर्मुख होता है कि 'मैं वही हूं' तो उसे अनुसन्धान प्रत्यय कहते हैं । इन प्रत्ययोंसे वस्तु नित्य ही सिद्ध होती है। समाधान-नहीं, क्योंकि नित्यैकान्तमें पूर्वापरीभाव नहीं बनता है अर्थात् जो सर्वथा नित्य है उसमें पूर्व पर्याय और उत्तर पर्याय नहीं हो सकती हैं । और पूर्वापरीभावके नहीं बननेसे न उसमें प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय हो सकता है और न अनुसन्धान प्रत्यय हो सकता है। शंका-जो पर्याय पूर्वक्षणमें थी वह उत्तरक्षणमें नहीं है इसप्रकारका जो व्यतिरेक प्रत्यय होता है वह भ्रान्त है। समाधान नहीं, क्योंकि बाधक प्रमाणके बिना व्यतिरेक प्रत्ययको भ्रान्त कहना असंगत है। शंका-जो वस्तु पूर्व क्षणमें थी वही उत्तर क्षणमें है इसप्रकार जो अन्वयप्रत्यय होता है वह व्यतिरेकप्रत्ययका बाधक है। समाधान-नहीं, क्योंकि यदि अन्वय प्रत्यय व्यतिरेक प्रत्ययका बाधक हो सकता है तो व्यतिरेकप्रत्यय भी अन्वयप्रत्ययका बाधक क्यों नहीं हो जाता है ? शंका-आपके मतमें भी धर्मादिक द्रव्य अपरिणामी हैं अतः वे नित्य और एक रूपसे अवस्थित देखे जाते हैं। समाधान-नहीं, क्योंकि सक्रिय जीव और पुद्गल द्रव्योंके परिणमन करते रहने पर उनके उपकारक धर्मादिक द्रव्योंको सर्वथा अपरिणामी मानने में विरोध आता है। तुलना-"अध्यक्षेण नित्यानित्यमेव तदवगम्यते, अन्यथा तदवगमाभावप्रसङ्गात् । तथा च यदि तत्र अप्रच्युतानत्पन्नस्थिरैकस्वभावं सर्वथा नित्यमभ्युपगम्यते एवं तर्हि तद्विज्ञानजननस्वभाव वा स्यादजननस्वभावं वा.. इत्येवं तावदेकान्तनित्यपक्षे विज्ञानादिकार्यायोगात् तदवगमाभाव इति।"-अनेकान्तवाव० प्र० पृ० २२-२४ । (१) प्रशस्तगतपू-आ०। प्रत्यस्तमत-अ० । (२) "तदेकान्तद्वयेऽपि परामर्शप्रत्ययानुपपत्तेरनेकान्तः।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० २०५। (३)-यः (त्रु० ३०) जीवपु-ता० ।-यः (त्रु० ३०) पणाबस्थिता दृश्यन्त इति चेन्न जीवपू-स० ।-य तदध्यारोपणावस्थिता दृश्यते इति चेन्न जीवपु-म०, मा०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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