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________________ गा० १३-१४ ] णयपरूवणं २३७ जनिता, भाविकृत्यमासीदिति । साधनव्यभिचार:-ग्राममधिशेते इति । पुरुषव्यभिचारः-एहि, मन्ये, रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पिता इति । उपग्रहव्यभिचार:-रमते विरमंति, तिष्ठति सन्तिष्ठते, विशति निविशते इति । ऐवमादयो व्यभिचारा न युक्ताः; अन्यार्थस्यान्यार्थेन सम्बन्धाभावात् । तस्मात् यथालिङ्गं यथासङ्ख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् ।। प्रयोग है अतः भविष्य अर्थ के विषयमें भूतकालीन प्रयोग करना कालव्यभिचार है। 'भाविकृत्यमासीत्' आगे होनेवाला कार्य हो चुका। यहाँ पर जो कार्य हो चुका उसे आगे होनेवाला कहा गया है, अतः भूत अर्थके विषयमें भविष्यत् कालका प्रयोग होनेसे यह कालव्यभिचार है। एक कारकके स्थान पर दूसरे कारकके प्रयोग करनेको साधनव्यभिचार कहते हैं। जैसे-ग्राममधिशेते' वह गाँव में विश्राम करता है। यहाँ पर सप्तमीके स्थान पर द्वितीया कारकका प्रयोग किया गया है इसलिये यह साधनव्यभिचार है। उत्तम पुरुषके स्थान पर मध्यमपुरुष और मध्यमपुरुषके स्थान पर उत्तम पुरुष आदिके प्रयोग करनेको पुरुषव्यभिचार कहते हैं। जैसे– 'एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता' जाओ, तुम समझते हो कि मैं रथसे जाऊंगा ? पर तुम नहीं जा सकते । तुम्हारे पिता भी कभी गये हैं ? यहाँ पर परिहासमें 'मन्यसे' के स्थान पर 'मन्ये' यह उत्तमपुरुषका और 'यास्यामि' के स्थान पर 'यास्यसि' यह मध्यम पुरुषका प्रयोग हुआ है, इसलिये यह पुरुषव्यभिचार है। उपसर्गके निमित्तसे परस्मैपदके स्थान पर आत्मनेपद और आत्मनेपदके स्थान पर परस्मैपदके प्रयोग करनेको उपग्रहव्यभिचार कहते हैं। जैसे-'रमते' के साथ 'वि' उपसर्गके लगानेसे 'विरमति' यह परस्मैपदका प्रयोग बनता है तथा 'तिष्ठति' के साथमें 'सं' उपसर्ग लगानेसे 'संतिष्ठते' और 'विशति के साथमें 'नि' उपसर्गके लगानेसे 'निविशते' यह आत्मनेपदका प्रयोग बनता है। यह उपग्रह व्यभिचार है । इसप्रकारके जितने भी लिङ्ग आदि व्यभिचार हैं वे सभी अयुक्त हैं, क्योंकि अन्य अर्थका अन्य अर्थके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता है। इसलिये जैसा लिङ्ग हो, जैसी संख्या हो और जैसा साधन हो उसीके अनुसार कथन करना उचित है। राजा शंखचक्रवर्ती भविष्यतीति शब्दयोभिन्न विषयत्वात् नैकार्थतेति चेत्, विश्वदश्वा जनितेत्यनयोरपि माभूत् तत एव | नहि विश्वं दृष्टवान् इति विश्वदृशि त्वेति शब्दस्य योऽर्थोऽतीतकालस्य जनितेति शब्दस्यानागतकालः पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधात् ।"-त० श्लो० पृ० २७३ । (१) विरमति संतिष्ठते तिष्ठति वि-ता०, स० । विरमति सन्तिष्ठते सन्तिष्ठति वि-अ०। विरमन्ते विरमन्ति संतिष्ठते संतिष्ठति वि-आ० । "रमते विरमति तिष्ठति सन्तिष्ठते विशति निविशते ।" ध० आ० ५० ५४३ । (२) "एवम्प्रकारं व्यवहारनयं न्या (-रमयमन्या) व्यं मन्यते अन्यार्थस्य अन्यार्थेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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