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________________ २२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ प्रत्येक जायते चित्तं जातं जातं प्रणश्यति । नष्टं नावर्तते भूयो जायते च नवं नवम् ॥११॥" $ १६१. ततोऽस्य नयस्य न बन्ध्यबन्धक-बध्यघातक-दाझेदाहक-संसारादयः सन्ति । न जातिनिबन्धनोऽपि विनाशः; प्रसज्य-पर्युदासविकल्पद्वये पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् । ६१६२. उत्पादोऽपि निर्हेतुकः। तद्यथा-नोत्पद्यमान उत्पादयति; द्वितीयक्षणे त्रिभुवनाभावप्रसङ्गात् । नोत्पन्न उत्पादयति; क्षणिकपक्षक्षतेः । न विनष्टं (ष्ट) उत्पादयति; जन्मसे ही पदार्थ विनाशस्वभाव है। उसके विनाशके लिये अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं पड़ती ॥१०॥" ___"प्रत्येक चित्त उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर नाशको प्राप्त होता है । तथा जो नष्ट हो जाता है वह पुनः उत्पन्न नहीं होता है किन्तु प्रतिसमय नया नया चित्त ही उत्पन्न होता है ॥११॥" 8 १६१. इसलिये इस नयकी दृष्टिमें बन्ध्यबन्धकभाव बध्यघातकभाव दाह्यदाहकभाव और संसारादिक कुछ भी नहीं बन सकते हैं। तथा इस नयकी दृष्टिमें जातिनिमित्तक विनाश भी नहीं बनता है, क्योंकि यहां पर भी प्रसज्य और पर्युदास इन दो विकल्पोंके माननेपर पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग प्राप्त होता है । १९२. तथा इस नयकी दृष्टिमें उत्पाद भी निर्हेतुक होता है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जो वर्तमान समयमें उत्पन्न हो रहा है वह तो उत्पन्न करता नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर दूसरे क्षणमें तीनों लोकोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। अर्थात् जो उत्पन्न हो रहा है वह यदि अपनी उत्पत्ति के प्रथम क्षणमें ही अपने कार्यभूत दूसरे क्षणको उत्पन्न करता है तो इसका मतलब यह हुआ कि दूसरा क्षण भी प्रथम क्षणमें ही उत्पन्न हो जायगा। इसीप्रकार द्वितीय क्षण भी अपने कार्यभूत तृतीय क्षणको उसी प्रथम क्षणमें उत्पन्न कर देगा। इसीप्रकार आगे आगेके कार्यभूत समस्त क्षण प्रथम क्षणमें ही उत्पन्न हो जायेंगे और दूसरे क्षणमें नष्ट हो जायँगे। इसप्रकार दूसरे क्षणमें तीनों लोकोंके समस्त पदार्थों के विनाशका प्रसंग प्राप्त होगा। जो उत्पन्न हो चुका है वह उत्पन्न करता है, ऐसा कहना भी नहीं बनता है, क्योंकि ऐसा मानने पर क्षणिक पक्षका विनाश प्राप्त होता है अर्थात् (१) बध्यब-अ०, आ०, ता०। (२) "पलालादिदाहाभावः, प्रतिविशिष्टकालपरिग्रहात्, अस्य हि नयस्य अविभागो वर्तमानसमयो विषयः, अग्निसम्बन्धनदीपनज्वलनदहनान्यसंख्येयसमयान्तरालानि यतोऽस्य दहनाभावः ....."-राजवा० २३३ । नयचक्रवृ०प०३५२। ध० आ० ५० ५४३ । “उक्तार्थाविसंवादी च श्लोको गीतः पुराविदा-पलालं न दहत्यग्निभिद्यते न घट: क्वचित् । नासंयतः प्रव्रजति भव्योऽसिद्धो सिद्धयति ।। पलालं दह्यत इति यद्वयवहारस्य वाक्यं तद् विरुद्धचते.."-त०भा०व्या०प०४० टी० पृ० ३१७ । नयोप० श्लो० ३१३ (३) तुलना-"सत्येव कारणे यदि कार्य त्रैलोक्यमेकक्षणवति स्यात् कारणक्षणकाल एव सर्वस्य उत्तरोत्तरक्षणसन्तानस्य भावात् ततःसन्तानाभावात् ।"-अष्टश०, अष्टसह० पृ० १८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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