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जयधवलासहित कषायप्राभृत
सम्मत्तदेसविरयी संजम उवसामणा च खवणा च ।
दसणचरितमोहे अद्धापरिमाणणिद्देसो ॥१४॥" जयधवलाकारके द्वारा किये गये व्याख्यानके अनुसार १ पेजदोसविभक्ति, २ स्थितिविभक्ति, ३ अनुभागविभक्ति, ४ बन्धक, ५ संक्रम, ६ वेदक, ७ उपयोग, ८ चतुःस्थान, ह व्यंजन, सम्यक्त्व से १० दर्शनमोहकी उपशामना और ११ क्षपणा, १२ देसविरति, १३ संयम, १४ चारित्र मोहनीयकी उपशामना और १५ क्षपणा ये पन्द्रह अधिकार कसायपाहुडके रचयिताको इष्ट हैं। किन्तु चूर्णिसूत्रकारने इन गाथाओं पर जो चूर्णिसूत्र बनाये हैं उनमें वे अधिकारोंका निर्देश नम्बर डालकर इस प्रकार करते हैं
"अत्याहियारो पण्णारसविहो। तं जहा-पेज्जदोसे १। विहत्तिठिविअणुभागे च २। बंधगेत्ति बंधो च ३, संकमो च ४ । वेदए त्ति उदओ च ५, उदीरणा च ६। उवजोगे च ७। उहाणे च ८॥ वंजणे च ९ । सम्मत्ते त्ति दसणमोहणीयस्स उवसामणा च १०, वंसगमोहणीयखवणा च ११। देसविरदी च १२। 'संजमे उवसामणा च खवणा च' चरित्तमोहणीयस्स उवसामणा च १३, खवणा च १४। .... अद्धापरिमाणणिद्देसो त्ति १५।”
दोनोंका अन्तर इस प्रकार है-'पेज्जदोसविहत्ती ठिदिअणुभागे च ' से ग्रन्थकारको तीन अधिकार इष्ट हैं जब कि चूर्णिसूत्रकार उससे दो ही अधिकार लेते हैं। 'वेदग' पद से ग्रन्थकारको एक ही अधिकार इष्ट है किन्तु चूर्णिकार उससे दो अधिकार लेते हैं। 'संजम' पदसे ग्रन्थकारको संयम नामका एक अधिकार इष्ट है, किन्तु चूर्णिकार उसे सप्तम्यन्त रखकर उसका सम्बन्ध 'उवसामणा च खवणा च से कर देते हैं। और उस कमीकी पूर्ति वे अद्धापरिमाणनिर्देशको स्वतन्त्र अधिकार मानकर करते हैं । इस प्रकार संख्या तो पूरी हो जाती है किन्तु अधिकारों में अन्तर पड़ जाता है।
___ इस पर यह कहा जा सकता है कि कसायपाहुडके कर्ताने अपनी गाथाओंका अर्थ स्वयं तो किया नहीं और चूर्णिसूत्रोंके आधार पर ही जयधवलाकारने कसायपाहुड़का व्याख्यान किया है। अतः अधिकारसचक गाथासत्रोंका जो अर्थ चर्णिसत्रकारने किया है उसे ही कषायप्राभृतके कतोंका अभिप्राय समझना चाहिये, न कि जो जयधवलाकारने किया है उसे ? इस आशङ्काका समाधान कषायप्राभृतके उन गाथासूत्रोंसे हो जाता है जिनमें यह बतलाया गया है कि किस अधिकारमें कितनी गाथाएँ है ? वे गाथासूत्र निम्रप्रकार है
"पेज्जदोसविहत्ती ठिदिअणुभागे च बंधगे चेव । तिण्णेदा गाहाओ पंचसु अत्थेसु णादव्वा ॥३॥ चत्तारि वेदयम्मि दु उवजोगे सत्त होंति गाहाओ । सोलस य चउट्ठाणे वियंजणे पंच गाहामो ॥४॥ दसणमोहस्सुवसामणाए पग्णारस होंति गाहाओ। पंचेव सुत्तगाहा सणमोहस्स खवणाए ॥५॥ लद्धी य संजमासंजमस्स लद्धी तहा चरित्तस्स । दोसु वि एक्का गाहा अट्टेवुवसामणद्धम्मि ॥ ६॥ चत्तारि य पट्ठवए गाहा संकामए वि चत्तारि। प्रोवट्टणाए तिण्णि दु एक्कारस होंति किट्टीए ॥ ७॥ चत्तारि य खवणाए एक्का पुण होदि खीणमोहस्स । एक्का संगहणीए अठ्ठावीसं समासेण ॥८॥"
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