SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [पेज्जदोसविहत्ती १ दोसाणं दोण्हं पि समाहारदुवारेण एगत्वलंभादो। पेज्जदोसे एगो अस्थाहियारो त्ति कथं णव्वदे ? जइवसहाइरियहविदएगंकादो । * विहत्तिहिदिअणुभागे च २। ६१५३. पयाडिविहत्ती हिदिविहत्ती अणुभागविहत्ती पदेसविहत्ती झीणाझीणं हिदिअंतियं च घेत्तूण विदियो अत्थाहियारो। कथमेदं णव्वदे ? जयिवसहाइरियट्ठविददोअंकादो । पयडि-पदेसविहत्ति-ज्झीणाझीण-हिदिअंतियाणं सुत्ते अणुवइट्ठाणं कथमेत्थ गहणं कीरदे ? ण; हिदि-अणुभागविहत्तीणमण्णहाणुववत्तीदो, अणुत्तसमुच्चयट्टेण 'च' सद्देण वा तेसिं गहणादो। एगवयणणिद्देसो कथं जुज्जदे ? ण; एगकम्मक्खंधाहारअर्थाधिकार है। शंका-'पेजदोसे' इस पदमें एक वचनका निर्देश कैसे बनता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि पेज और दोष इन दोनोंमें भी समाहार द्वन्द्वसमासकी अपेक्षा एकत्व पाया जाता है अतः 'पेज्जदोसे' इस पदमें एकवचन निर्देश बन जाता है । शंका-पेज-दोष पहला अधिकार है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि यतिवृषभ आचार्यने 'पेज-दोसे' इस पदके आगे एकका अंक स्थापित किया है, इससे प्रतीत होता है कि पेज-दोष यह पहला अर्थाधिकार है। * प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति तथा सूत्रमें आये हुए 'च' पदसे समुच्चय किये गये प्रदेशविभक्ति, झीणाझीणप्रदेश और स्थित्यन्तिकप्रदेश इन सबको मिला कर दूसरा अर्थाधिकार होता है २ । $ १५३. प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, झीणाझीणप्रदेश और स्थित्यन्तिकप्रदेश इन सबको ग्रहण करके दूसरा अर्थाधिकार होता है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि यतिवृषभ आचार्यने 'विहत्तिहिदिअणुभागे च' इस सूत्रके आगे दोका अंक स्थापित किया है । इससे प्रतीत होता है कि प्रकृतिविभक्ति आदिको मिलाकर दूसरा अर्थाधिकार होता है। __ शंका-प्रकृतिविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, झीणाझीणप्रदेश और स्थित्यन्तिकप्रदेश इनका सूत्र में उपदेश नहीं किया है फिर इनका दूसरे अर्थाधिकारमें कैसे ग्रहण किया जा सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि प्रकृतिविभक्ति आदिके बिना स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्ति नहीं बन सकती हैं। इसलिये उनका यहां ग्रहण हो जाता है। अथवा अनुक्तका समुच्चय करनेके लिये आये हुए 'च' शब्दसे उन प्रकृतिविभक्ति आदिका दूसरे अर्थाधिकारमें ग्रहण हो जाता है। शंका-'विहत्ति द्विदिअणुभागे' इस पदमें एकवचनका निर्देश कैसे बन जाता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy