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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ $ १३६. संपहि एदासिं संखाए सह सुत्तसण्णापरूवणटुं वक्खाणगाहाणं सण्णापरूत्रणटुं च उत्तरगाहासुत्तमागयं १७० संकामण ओट्टण-किट्टी-खवणाए एक्कवीसं तु । पदाओ सुत्तगाहाओ सुख अण्णा भासगोहा ॥१०॥ १३७. ताओ एकवीस सभासगाहाओ कत्थ होंति त्ति भणिदे भणइ 'संकामणओट्टण कट्टी-खवणाए' होंति । तं जहा, संकमणाए चत्तारि ४, ओवट्टणाए तिणि ३, किड्डी दस १०, खवणाए चत्तारि ४ गाहाओ होंति । एवमेदाओ एकदो कदे एकवीस विशेषार्थ - यद्यपि पहले यह बता आये हैं कि गुणधर आचार्यने जितनी गाथाएँ रचीं हैं उनमें सूत्रका लक्षण पाया जाता है इसलिये वे सब सूत्रगाथाएँ हैं । तथा प्रतिज्ञाश्लोक में स्वयं गुणधर आचार्यने भी सभी गाथाओं को सूत्रगाथा कहा है । परन्तु यहाँ चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके प्रकरणमें आईं हुईं गाथाओं में जो सूत्रगाथा और असूत्रगाथा इस प्रकारका भेद किया है उसका कारण यह है कि इस प्रकरणमें मूलगाथाएं अट्ठाईस हैं । उनमें से इक्कीस गाथाओंके अर्थका व्याख्यान करनेवाली छियासी भाष्यगाथाएँ पाईं जाती हैं और शेष सात मूल गाथाएँ स्वयं अपने प्रतिपाद्य अर्थको प्रकट करती हैं। उनके अर्थ के स्पष्टीकरण के लिये अन्य व्याख्यानगाथाओंकी आवश्यकता नहीं है । अतः जिन इक्कीस गाथाओं पर व्याख्यानगाथाएँ पाई जाती हैं उन्हें अर्थका सूचन करनेवाली होनेसे सूत्रगाथा, उनका व्याख्यान करनेवाली गाथाओंको भाष्यगाथा और शेष सात गाथाओंको असूत्रगाथा कहा है । यह व्यवस्था केवल इस प्रकरणसे ही संबन्ध रखती है। पूर्वोक्त व्यवस्थाके अनुसार तो गुणधर आचार्यके द्वारा बनाई गईं सभी गाथाएँ सूत्रगाथाएँ हैं, ऐसा समझना चाहिये । $ १३६. अब इन गाथाओंकी संख्या के साथ सूत्रसंज्ञा के प्ररूपण करनेके लिये और व्याख्यान गाथाओंकी संज्ञाके प्ररूपण करनेके लिये आगेका गाथासूत्र आया है चारित्र मोहनीयकी क्षपणा नामक अर्थाधिकार के अन्तर्भूत संक्रामण, अपवर्तन, कृष्टि और क्षपणा इन चार अधिकारोंमें जो इक्कीस गाथाएँ कही हैं वे सूत्रगाथाएँ हैं । तथा इन इक्कीस गाथाओंके अर्थके प्ररूपणसे संबन्ध रखनेवालीं अन्य गाथाएँ भाष्यगाथाएँ हैं, उन्हें सुनो ॥ १० ॥ § १३७. वे इक्कीस सभाष्यगाथाएँ कहां कहां हैं ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि संक्रामण, अपकर्षण, कृष्टि और क्षपणामें वे इक्कीस गाथाएं हैं। आगे इसी विषयका स्पष्टीकरण करते हैं-संक्रमणामें चार, अपवर्तना में तीन, कृष्टिमें दस और क्षपणामें चार सभाष्यगाथाएं हैं। इसप्रकार इन सबको एकत्र करने पर इक्कीस सभाष्यगाथाएं होती हैं । ( १ ) " भासगाहाओ त्ति वा वक्खाणगाहाओ त्ति वा विवरणगाहाओ त्ति वा एयट्ठो ।" - जयध० प्रे० पृ० ६७९५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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