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________________ गा० ६ ] अत्थाहियारगाहासूई १६६ घेचव्वा १ | 'पवए' त्ति भणिदे चत्तारि पट्टवणगाहाओ घेत्तव्वाओ ४ । 'सत्तेदा गाहाओ' त्ति भणिदे सत्तेदा गाहाओ सुत्तगाहाओ ण होंति; सूचिदत्था (त्थ ) पडिबद्धभासगाहाणमभावादो | अण्णाओ सभासगाहाओ । चारितमोहक्खवणाहियारम्मि पढिदअट्ठवीसगाहासु एदाओ सत्त गाहाओ अवणिदे सेसाओ एकवीस गाहाओ 'अण्णाओ' ति णिहिहाओ । $१३५. 'सभासगाहाओ' त्ति च (ब) समासो, तेन 'सह भाष्यगाथाभिर्वर्त्तन्त इति सभाष्यगाथाः' इति सिद्धम् । जत्थ 'भासगाहाओ' त्ति पठदि तत्थ सहसद्दत्थो कथमुवलभदे ? ण; सहसद्देण विणा वि तदट्ठस्स तत्थ णिविहस्स उवलंभादो | तदट्ठे संते सो सो किमिद ण सवणगोयरे पददि ? पण “किरैचि ( कीरइ ) पयाण काण व आईमज्झतवण्णसरलोओ । केसिंचि आगमो व्वि य इट्ठाणं वंजणसराणं ॥७२॥” इदि देण लक्खण पत्तलोत्तादो । सुइदत्थत्तादो एदाओ सुत्तगाहाओ । ऐसा कथन करने पर चारित्रमोहकी क्षपणाके प्रस्थापकसे सम्बन्ध रखनेवालीं चार गाथाएँ लेना चाहिये । 'सत्तेदा गाहाओ' ऐसा कथन करने पर ये पूर्वोक्त सात गाथाएं सूत्रगाथाएं नहीं है ऐसा निश्चित होता है, क्योंकि ये गाथाएं जिस अर्थको सूचित करती हैं उससे सम्बन्ध रखनेवालीं भाष्यगाथाओंका अभाव है । इन सात गाथाओंसे अतिरिक्त अन्य इक्कीस गाथाएं सभाष्यगाथाएं हैं । चारित्रमोहनीयके क्षपणा नामक अर्थाधिकारमें कही गईं अट्ठाईस गाथाओं मेंसे इन सात गाथाओंके घटा देने पर शेष इक्कीस गाथाएं 'अन्य' इस पद से निर्दिष्ट की गई हैं। $ १३५. सभाष्यगाथा इस पदमें बहुव्रीहि समास है, इसलिये जो गाथाएं भाष्यगाथाओं के साथ पाईं जाती हैं अर्थात् जिन गाथाओंका व्याख्यान करनेवालीं भाष्यगाथाएं भी हैं वे सभाष्यगाथा कहलातीं हैं, यह सिद्ध होता है । शंका- जहां पर 'भाष्यगाथाएं' ऐसा कहा गया है वहां पर 'सह' शब्दका अर्थ कैसे उपलब्ध होता है ? समाधान - ऐसी शङ्का नहीं करना चाहिये, क्योंकि 'सह' शब्द के बिना भी वहां 'सह' शब्द का अर्थ निविष्ट रूपसे पाया जाता है । शंका - सह शब्दका अर्थ रहते हुए वहां पर 'स' शब्द क्यों नहीं सुनाई पड़ता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि “किन्हीं पदोंके आदि, मध्य और अन्तमें स्थित वर्णों और स्वरोंका लोप होता है तथा किन्हीं इष्ट व्यंजन और स्वरोंका आगम भी होता है ।। ७२ ।। " इस लक्षणके अनुसार, जहां 'स' शब्द सुनाई नहीं पड़ता है वहां उसका लोप समझना चाहिये । ये इक्कीस गाथाएं अर्थका सूचनमात्र करनेवाली होनेसे सूत्रगाथाएँ हैं । (१) उद्धृतेयम् - ध० आ० प० ३९७ । २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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