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________________ १५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? कदा । तत्थ अणेगेहि अत्थाहियारेहि परूविदं कसायपाहुडमेत्थ पण्णारसेहि चेव अत्था. हियारेहि परूवेमित्ति जाणावणटुं 'अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि' ति विदियपइज्जा कदा। एत्थ एक्कमत्थाहियारं एत्तियाहि एत्तियाहि चेव गाहाहि भणामि त्ति जाणावणटं 'जम्मि अत्थम्मि जदि गाहाओ होंति ताओ वोच्छामि' त्ति तदियपइज्जा कदा । एवमेदाओ तिण्णि पइज्जाओ गुणहरभडारयस्स । ___६ ११६. संपहि गाहासुत्तत्थो वुच्चदे । 'गाहासदे असीदे' त्ति भणिदे 'असीदिगाहाहियगाहासदम्मि' त्ति घेतव्वं । बहूणं 'सदे' इदि कथमेगवयणणिद्देसो ? ण; सदभावेण बहूणं पि एगत्तदंसणादो। केरिसे असीदे सदे त्ति वुत्ते पण्णरसधा विहआचार्यने 'गाहासदे असीदे' इस प्रकार पहली प्रतिज्ञा की है। विशेषार्थ-एक मध्यमपदमें १६३४८३०७८८८ अक्षर होते हैं। इनसे १६००० पदोंके गुणित कर देने पर २६१५७२६२६२०८००० अक्षर आ जाते हैं। इतने अक्षरों द्वारा इन्द्रभूति गणधरने मूल कषायप्राभृतका प्रतिपादन किया था। तथा इसी कषायप्राभृतका गुणधर आचार्यने एक सौ अस्सी गाथाओंके द्वारा कथन किया है। ये १८० गाथाएं प्रमाणपदसे ७२० पद प्रमाण हैं। तथा इनमें संयुक्त और असंयुक्त कुल अक्षर ५७६० पांच हजार सात सौ साठ हैं। ___अंगप्रविष्ट श्रुतमें इन्द्रभूति गणधरने अनेक अर्थाधिकारोंके द्वारा कषायप्राभृतका प्रतिपादन किया है, परन्तु मैं (गुणधर आचार्य) यहां पर उस कषायप्राभृतका पन्द्रह अर्थाधिकारोंके द्वारा ही प्रतिपादन करता हूं, यह ज्ञान करानेके लिये गुणधर आचार्यने 'अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि' यह दूसरी प्रतिज्ञा की है । इसमें भी इतनी इतनी गाथाओंके द्वारा ही एक एक अधिकारका प्रतिपादन करूँगा इस अभिप्रायका ज्ञान करानेके लिये गुणधर आचार्यने 'जम्मि अत्थम्मि जदि गाहाओ होंति ताओ वोच्छामि' यह तीसरी प्रतिज्ञा की है। इसप्रकार गुणधर भट्टारककी ये तीन प्रतिज्ञाएँ हैं । 8 ११६. अब आगे पूर्वोक्त गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं । 'गाहासदे असीदे'का अर्थ एक सौ अस्सी गाथाएँ लेना चाहिये। शंका-बहुतके लिये 'शत' शब्द आता है, इसलिये उसमें एकवचनका निर्देश कैसे बन सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि शतरूपसे बहुतमें भी एकत्व देखा जाता है, इसलिये शतका एकवचन रूपसे निर्देश करनेमें कोई आपत्ति नहीं है। विशेषार्थ-संख्येयप्रधान और संख्यानप्रधानके भेदसे संख्या दो प्रकारकी है । बीससे पहले उन्नीस तक की संख्या संख्येयप्रधान है और बीससे लेकर आगेकी संख्या संख्येयप्रधान भी है और संख्यानप्रधान भी है । अतः शतशब्द जब संख्येयप्रधान रहेगा तब 'सौ' इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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