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________________ १२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ भाषण करनेकी सामर्थ्य देवोंके निमित्तसे आती है इसलिये यह देवोपनीत कहलाती है। इसमें दिव्यध्वनिको आठ प्रातिहार्यों में अलगसे गिनाया है। महापुराणके सर्ग २३ श्लोक ६६ से ७४ में लिखा है कि आदिनाथ तीर्थकरके मुखसे मेघगर्जनाके समान गंभीर दिव्यध्वनि प्रकट हुई जो एक प्रकारकी अर्थात् एक भाषारूप थी। फिर भी वह सभी प्रकारकी छोटी बड़ी भाषारूप परिणत होकर सभीके अज्ञानको दूर करती थी । यह सब जिनदेवके माहात्म्यसे होता है । जिसप्रकार जल एक रसवाला होता हुआ भी अनेक प्रकारके वृक्षोंके संसर्गसे अनेक रसवाला हो जाता है उसीप्रकार दिव्यध्वनि भी श्रोताओंके भेदसे अनेक प्रकारकी हो जाती है । इसमें 'देवकृतो ध्वनिरित्यसत्' यह कहकर ध्वनिके देवकृत अतिशयत्वका निराकरण किया है। भगजिनसेन इस कथनको जिनेन्द्रकी गुणकी हानिका करनेवाला बतलाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि इस समय इस विषयमें दो मान्यताएँ थीं। एक मतके अनुसार दिव्यध्वनिका सर्व भाषारूपसे परिणत होना देवोंका कार्य माना जाता था और दूसरे मतानुसार यह अतिशय स्वयं जिनदेवका था। भगवज्जिनसेनके अभिप्रायानुसार दिव्यध्वनि साक्षर होती है। यह दिव्यध्वनि सभी विषयोंका प्रस्फुटरूपसे अलग अलग व्याख्यान करती है, अतः संकरदोषसे रहित है। तथा एक विषयको दूसरे विषयमें नहीं मिलाती है, अतः व्यतिकरदोषसे रहित है। (२) दिव्यध्वनि प्रातः, मध्यान्ह और सायंकालमें छह छह घड़ी तक खिरती है, तथा किन्हींके आचार्योंके मतसे अर्धरात्रिके और मिला देने पर चार समय खिरती है । जब गणधरको किसी प्रमेयके निर्णय करनेमें संशय, विपर्यय या अनध्यवसाय हो जाता है तब अन्य समय भी दिव्यध्वनि खिरती है। (३) वीरसेन स्वामी पहले लिख आये हैं कि जिसने विवक्षित तीर्थकरके पादमूलमें महाव्रतको स्वीकार किया है उस तीर्थङ्करदेवकी उसके निमित्तसे ही दिव्यध्वनि खिरती है, ऐसा स्वभाव है तथा वे यह भी लिख आये हैं कि गणधरके अभावमें ६६ दिन तक भगवान् महावीरकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी। इससे प्रतीत होता है कि दिव्यध्वनिके खिरनेके मूल निमित्त गणधरदेव हैं। उनके रहते हुए ही दिव्यध्वनि खिरती है अभावमें नहीं। धवलामें बतलाया है कि भगवानको केवलज्ञान हो जाने पर भी लगातार ६६ दिन तक जब दिव्यध्वनि नहीं खिरी तब इन्द्रने उसका कारण गणधरका अभाव जान कर उस समयके महान वैदिक विद्वान इन्द्रभूति ब्राह्मण पंडितसे जाकर यह प्रश्न किया कि 'पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पांच महाव्रत और आठ प्रवचनमातृका कौन हैं । बन्ध और मोक्षका स्वरूप क्या है तथा उनके कितने कारण हैं' इस प्रश्नको सुनकर इन्द्रभूतिने स्वयं अपने शिष्य समुदायके साथ भगवान महावीरके पास जानेका निर्णय किया। जब इन्द्रभूति समवसरणके पास पहुंचे तब मानस्तंभको देखकर ही उनका मान गलित हो गया और भगवानकी वन्दना करके उन्होंने पांच महाव्रत ले लिये । महाव्रत लेनेके अनन्तर एक अन्तर्मुहूर्तमें ही गौतमको चार ज्ञान और अनेक ऋद्धियां प्राप्त हो गई और वे भगवान महावीरके मुख्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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