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________________ १२६ धवलास हिदे कसायपाहुडे [ १ पेज्जदोसविहत्ती कहाणं सरूवं वण्णेदि । केण कहिंति ते । दिव्वज्झुणिणा । केरिसा सा ? संव्वभासा सरुवा अक्खराणक्खरप्पिया अणंतत्थगन्भबीजेपदघडियसरीरा तिसंज्झविसय छघडियासु णिरंतरं पयट्टमाणिया इयरकालेसु संसयविवज्जासाणज्झवसाय भावगय गणहरदेवं पडि वट्टमाणसावा संकरवदिगराभावादो विसदसरूवा एऊणबीसम्म कहाकहणसहावा । शंका- तीर्थंकर धर्मकथाओंके स्वरूपका कथन किसके द्वारा करते हैं ? समाधान - तीर्थंकर धर्मकथाओंके स्वरूपका कथन दिव्यध्वनिके द्वारा करते हैं । शंका- वह दिव्यध्वनि कैसी होती है अर्थात् उसका क्या स्वरूप है ? समाधान - वह सर्वभाषामयी है अक्षर-अनक्षरात्मक है, जिसमें अनन्त पदार्थ समाविष्ट हैं, अर्थात् जो अनन्तपदार्थोंका वर्णन करती है, जिसका शरीर बीजपदोंसे घड़ा गया है, जो प्रातः मध्यान्ह और सायंकाल इन तीन संध्याओंमें छह छह घड़ीतक निरन्तर खिरती रहती है, और उक्त समयको छोड़कर इतर समय में गणधरदेवके संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय भावको प्राप्त होनेपर उनके प्रति प्रवृत्ति करना अर्थात् उनके संशयादिकको दूर करना जिसका स्वभाव है, संकर और व्यतिकर दोषोंसे रहित होनेके कारण जिसका स्वरूप विशद है और उन्नीस ( अध्ययनोंके द्वारा ) धर्मकथाओंका प्रतिपादन करना जिसका स्वभाव है, इसप्रकार के स्वभाववाली दिव्यध्वनि समझना चाहिये । विशेषार्थ - दिव्यध्वनिके विषय में उसका स्वरूप, उसके खिरनेका काल और वह किस निमित्तसे खिरती है इन तीन बातोंका विचार करना आवश्यक है । ( १ ) ऊपर यद्यपि यह बतलाया ही है कि दिव्यध्वनि अक्षर और अनक्षरात्मक होती है तथा वह अनन्तार्थगर्भ बीजपदरूप होती है । षट्खंडागमके वेदनाखंडकी टीका करते हुए वीरसेन स्वामीने दिव्यध्वनिके स्वरूप पर अधिक प्रकाश डाला है। वहां एक शंका इसप्रकार भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ परिआया सुअपरिग्गहा तवोवहाणाई संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई पाजोवगमनाई देवलोगमणाइं सुकुलपच्चायाईओ पुण बोहिलाभा अंतकिरिआओ य आघविज्जति । दस धम्मकहाणं वग्गा "नन्दी० सू० ५० । सम० सू० १४१ । (१) "मिदुमधुरगभीरतरा विसदविसयसयलभासाहि । अट्ठरसमहाभासा खुल्लयभासा वि सत्तसयसंखा ।। अक्खरअक्णखरप्पय सण्णीजी वाणसयलभासाओ । एदासि भासाणं तालुवदंतोट्ठकंठवावारं । परिहरिय एक्ककालं भव्वजणाणंदकरभासो ।" - ति० प० १।६० - ६२ । “ तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम्” - बृहत्स्व० श्लो० ९६ | न्यायकु० पृ० २ । “मधुरस्निग्धगम्भीरदिव्योदात्तस्फुटाक्षरम् । वर्ततेऽनन्यवृत्तैका तत्र साध्वी सरस्वती ।।" - हरि० ५८१९ । “गम्भीरं मधुरं मनोहरतरं दोषैरपेतं हितम् । कण्ठौष्ठादिवचोनिमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतम् ॥ स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथकं निःशेषभाषात्मकम् । दूरासन्नसमं समं निरूपमं जैनं वचः पातु नः ॥”- समव० पृ० १३६ । “सर्वभाषापरिणतां जैनीं वाचमुपास्महे ।" - काव्यानु० इलो० १ । (२) “संखित्तसद्दरयणमणंतत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसंगयं बीजपदं णाम ।" - ध० आ० प० ५३६ । (३) "उक्तञ्च पुवण्हे मज्झरहे अवरण्हे मज्झिमाए रत्तीए । छच्छग्घडियाणिग्गयदिव्वज्भुणी कहइ सुत्तत्थे ॥" - समव० पृ० १३६ । ( ४ ) " णायाधम्मकहासु एगूणवीसं अज्झयणा ..."" - सम० सू० १४१ । (५) धम्मकहाण स - अ० आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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