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________________ गा०] ठाणांगसरूवपरूवणं ६४. हाणं णाम जीव-पुग्गलादीणमेगादिएगुत्तरकमेण ठाणाणि वण्णेदि___ "ऐक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिदो । चदुसंकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य ॥ ६४ ॥" छक्कापक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगिसब्भावो । अट्ठासवो णवट्ठो जीवो दसट्ठाणिओ भणिओ ।। ६५ ॥" एवमाइसरूबेण । ६६४. स्थानांग जीव और पुद्गलादिकके एकको आदि लेकर एकोत्तर क्रमसे स्थानोंका वर्णन करता है । यथा "महात्मा अर्थात् यह जीवद्रव्य निरन्तर चैतन्यरूप धर्मसे अन्वित होनेके कारण उसकी अपेक्षा एक प्रकारका कहा गया है। ज्ञानचेतना और दर्शनचेतनाके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है। अथवा भव्य और अभव्यके भेदसे दो प्रकारका कहा है। कर्मचेतना, कर्मफलचेतना, और ज्ञानचेतना इन तीन लक्षणोंसे युक्त होनेके कारण तीन भेदरूप कहा है। अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यके भेदसे तीन प्रकारका कहा गया है। कर्मोंकी परवशतासे चार गतियोंमें परिभ्रमण करता है इसकारण चार प्रकारका कहा गया है । औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये पाँच प्रमुखधर्म ही उसके प्रधान गुण हैं, अतः वह पाँचप्रकारका कहा गया है। भवान्तरमें संक्रमणके समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे इसप्रकार छह दिशाओंमें गमन करता है अतः छह प्रकारका कहा गया है। स्यादस्ति, स्यान्नास्ति इत्यादि सात भंगोंसे युक्त होनेकी अपेक्षा सात प्रकारका कहा है। ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोके आस्रवसे युक्त होनेकी अपेक्षा आठ प्रकारका कहा गया है। अथवा सिद्धोंके आठ गुणोंका आश्रय होनेकी अपेक्षा आठ प्रकारका कहा गया है। जीवादि नौ प्रकारके पदार्थोंरूप परिणमन करनेवाला होनेकी अपेक्षा नौं प्रकारका कहा गया है। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येकवनस्पतिकायिक, साधारणवनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रयजाति, और पंचेन्द्रियजातिके भेदसे दस स्थानगत होनेसे दस प्रकारका कहा गया है ॥६४-६५॥” (१) "स्थाने अनेकाश्रयाणामर्थानां निर्णयः क्रियते।"-राजवा० ११२० । ध० सं० १० १००। ध० आ०५० ५४६। हरि० १०।२९। सं० श्रुतभ० टी० श्लो०७। गो० जीव० जी० गा० ३५६। अंगप०। "ठाणे णं ससमया ठाविज्जंति परसमया ठाविज्जति ससमयपरसमया ठाविज्जति जीवा ठाविज्जंति अजीवा ठाविज्जति जीवाजीवा० लोगा. अलोगा० लोगालोगा० ठाविज्जति, ठाणे णं दव्वगुणखेत्तकालपज्जवपयस्थाणं. 'एक्कविहवत्तव्वयं दुविह जाव दसविहवत्तव्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगट्ठाइं च णं परूवणया आघविज्जति . ."-सम० सू० १३८ । नन्दी० सू० ४७ । (२) पञ्चा० गा० ७१, ७२। “स खलु जीवो महात्मा नित्यचैतन्योपयुक्तत्वादेक एव । ज्ञानदर्शनभेदाद् द्विविकल्पः। कर्मफलकार्यज्ञानचेतनाभेदेन लक्ष्यमाणत्वात् त्रिलक्षणः ध्रौव्योत्पादविनाशभेदेन वा । चतसृषु गतिषु चंक्रमणत्वाच्चतुश्चङक्रमणः । पञ्चभिः पारिणामिकौदयिकादिभिरग्रगुणैः प्रधानत्वात् पञ्चाग्नगुणप्रधानः। चतसृषु दिक्षु ऊर्ध्वमधश्चेति भवान्तरसंक्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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