SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० १] कप्पाकप्पियादिसरूवपरूवणं १२१ साहूणमसाहूणं च जंकप्पइ जं च ण कप्पइ तं सव्वं दव्व-खेत्त-काल-भावे अस्सिदृण भणइ कप्पोकप्पियं । साहूणं गहण-सिक्खा-गणपोसणप्पसंसकरण-सल्लेहणुत्तमट्टाणगयाणं जं कप्पइ तस्स चेव दव्व-खेत्त-काल-भावे अस्सिदूण परूवणं कुणइ महाकप्पियं । भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-कप्पवासिय-वेमाणियदेविंद-सामाणियादिसु उप्पत्तिकारणदाण-पूजा-सील-तवोववास-सम्मत्त-अकामाणिज्जराओ तेसिमुववादभवणसरूवाणि च वण्णेदि पुरीयं । तेसिं चेव पुव्वुत्तदेवाणं देवीसु उप्पत्तिकारणतवोववासादियं महापुंडरीयं परूवेदि। णाणाभेदभिण्णं पायच्छित्तविहाणं णिसीहियं वण्णेदि । जेणेवं तेण और बाईस परीषहोंके सहन करनेके विधानका और उनके सहन करनेके फलका तथा 'इस प्रश्नके अनुसार यह उत्तर होता है' इसका वर्णन करता है। ऋषियोंके जो व्यवहार करने योग्य है और उसके स्खलित हो जाने पर जो प्रायश्चित्त होता है, इन सबका वर्णन कल्प्यव्यवहार प्रकीर्णक करता है। साधुओंके और असाधुओंके जो व्यवहार करने योग्य है और जो व्यवहार करने योग्य नहीं हैं इन सबका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रय लेकर कल्प्याकल्प्यप्रकीर्णक कथन करता है। दीक्षा, ग्रहण, शिक्षा, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमस्थानरूप आराधनाको प्राप्त हुए साधुओंके जो करने योग्य है, उसका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रय लेकर महाकल्प्यप्रकीर्णक प्ररूपण करता है। पुंडरीकप्रकीर्णक भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी और वैमानिकसंबन्धी देव, इन्द्र और सामानिक आदिमें उत्पत्तिके कारणभूत दान, पूजा, शील, तप, उपवास, सम्यक्त्व और अकामनिर्जराका तथा उनके उपपादस्थान और भवनोंके स्वरूपका वर्णन करता है। महापुंडरीकप्रकीर्णक उन्हीं भवनवासी आदि पूर्वोक्त देवों और देवियों में उत्पत्तिके कारणभूत तप और उपवास आदिका प्ररूपण करता है। निषिद्धिका प्रकीर्णक नाना भेदरूप प्रायश्चित्त विधिका वर्णन करता है। (२) "कप्पाकप्पियं साहूणं जं कप्पदि जं च ण कप्पदि तं सव्वं वष्णेदि।"-ध० सं० पृ० ९८ । हरि० १०११३६ । गो० जीव० जी० गा० ३६८ । अंगप० (चु०) गा० २८ । (२) “महाकप्पियं कालसंघडणाणि अस्सिऊण साहपाओग्गदव्ववेत्तादीणं वण्णणं कुणइ"-ध० सं पृ० ९८। हरि०१०११३६ । “महतां कल्प्यमस्मिन्निति महाकल्प्यं शास्त्रम्, तच्च जिनकल्पसाधनाम उत्कृष्टसंहननादिविशिष्टद्रव्यक्षेत्रकालभाववर्तिनां योग्यं त्रिकालयोगाद्यनुष्ठानं स्थविरकल्पानां दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनोत्तमार्थस्थानगतोत्कृष्टाराधनाविशेषं च वर्णयति ।"-गो० जीव० जी० गा० ३६८ । अंगप० (चू०) गा० २९-३१। (३) "पुंडरीयं चउविहदेवेसुववादकारणअणदाणाणि वण्णेइ ।"-ध० स० पृ० ९८। हरि० १०११३७ । "पुंडरीकं नाम शास्त्रं भावनव्यन्तरज्योतिष्ककल्पवासिविमानेषु उत्पत्तिकारणदानपूजातपश्चरणाकामनिर्जरासम्यक्त्वसंयमादिविधानं तत्तदुपपादस्थानवैभवविशेषं च वर्णयति।"-गो० जीव० जी० गा० ३६८। अंगप० (च०) गा० ३१३३ । (४) “महापुडरीयं सयलिंदपडिइंदे उप्पत्तिकारणं वणेइ"-ध० सं० पृ० ९८ । “देवीनामुपपादं तु पुंडरीयं महादिकम्"-हरि० १०११३७ । 'महधिकेषु इन्द्रप्रतीन्द्रादिषु उत्पत्तिकारणतपोविशेषाद्याचरणं वर्णयति ।"-गो० जीव० जी० गा० ३६८। (५) "णिसिहियं बहुविहपायच्छित्तविहाणवण्णणं कुणइ ।"ध० सं० पृ० ९८ । “निषिद्य काख्यमाख्याति प्रायश्चित्तविधि परम् ।"-हरि० १०।१३८ । “निषेधनं प्रमाददोषनिराकरणं निषिद्धिः, सज्ञायां कप्रत्यये निषिद्धिका, प्रायश्चित्तशास्त्रमित्यर्थः। तच्च प्रमाददोषविशुद्धयर्थ बहुप्रकारं प्रायच्चित्तं वर्णयति।"-गो० जीव० जी० गा० ३६८ । “णिसेहियं हि सत्थं पमाददोसस्स दूरपरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy