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________________ गा० १] सामाइयसरूवपरूवणं संधिदिणेर्स वा सगिच्छिदवेलासु वा बज्झतरंगासेसत्थेसु संपरायणिरोहो वा सामाइयं णाम । एवंविहं सामाइयं कालमस्सिदूण भरहादिखेत्ते च संघडणाणि गुणहाणाणि च अस्सिदृण परिमिदापरिमिदसरूवेण जेण परूवेदि तेण सामोइयस्स वत्तव्वं ससमओ। है। अथवा तीनों ही संध्याओंमें या पक्ष और मासके सन्धिदिनोंमें या अपने इच्छित समयमें बाह्य और अन्तरङ्ग समस्त पदार्थों में कषायका निरोध करना सामायिक है। चूंकि सामायिक नामक प्रकीर्णक इसप्रकार कालका आश्रय करके और भरतादि क्षेत्र, संहनन तथा गुणस्थानोंका आश्रय करके परिमित और अपरिमितरूपसे सामायिकका प्ररूपण करता है इसलिये सामायिकका वक्तव्य स्वसमय है। विशेषार्थ-सामायिकमें राग और द्वेषका त्याग करना मुख्य है। कभी सचित्तादि द्रव्यके निमित्तसे, कभी नगरादि क्षेत्रके निमित्तसे और कभी वसन्तादि कालके निमित्तसे राग और द्वेष पैदा होता है जिससे इस जीवकी परिणति कभी रागरूप और कभी द्वेषरूप होती रहती है, जो आत्माको संसारमें रोके हुए है; अत: इसके त्यागके लिये सामायिक की जाती है। अन्तरंगमें क्रोधादि कषायोंके उदयसे और बहिरंगमें सचित्त द्रव्यादिके निमित्तसे जो राग और द्वेषरूप परिणति होती है उसका त्याग करके आत्मधर्म समता आदिके साथ समरसभावको प्राप्त होना सामायिक है । द्रव्य, क्षेत्र और कालके भेदसे तीन प्रकारकी सामायिक निमित्तकी प्रधानतासे कही गई है। वैसे 'मैं सर्व सावद्यसे विरत हूं' इसप्रकारके संकल्पपूर्वक होनेवाली समताप्रधान भावसामायिक सभी समीचीन सामायिकोंमें पाई जाती है। आगममें सामायिक, छेदोपस्थापना आदि पाँच प्रकारका जो चारित्र बतलाया है, उनमेंसे यहाँ केवल सामायिक चारित्रका अर्थ सामायिक नहीं है। चारित्रके वे पाँच भेद अवस्थाविशेषकी अपेक्षासे किये गये हैं, अतः पाँचों चारित्र सामायिकमें अन्तर्भूत हो जाते हैं। नियतकालमें जो णमोकार आदि मंत्रोंका जप किया जाता है वह यदि राग और द्वेषके त्यागकी मुख्यतासे किया जाता है तो उसका भी सामायिकमें अन्त. र्भाव हो जाता है। किन्तु जो जप विद्या देवता आदिकी सिद्धिके लिये किया जाता है वह सामायिक नहीं है, क्योंकि उससे शुभ और अशुभ कार्यों में प्रवृत्ति होती हुई देखी जाती है। ऊपर जो परिमित और अपरिमितरूपसे सामायिक बतलाई है। वहाँ परिमितका अर्थ नियतकाल और अपरिमितका अर्थ अनियतकाल प्रतीत होता है। जिनका काल नियत है ऐसे स्वाध्याय आदि नियतकाल सामायिक कहलाते हैं और जिनका काल नियत नहीं है ऐसे ईर्यापथ आदि अनियतकाल सामायिक कहलाते हैं। सामायिक नामके प्रकीर्णकमें इसप्रकार सामायिकका कथन किया गया है, अतः उसका कथन स्वसमयवक्तव्य है।। (१) "तद्विविधं नियतकालमनियतकालं च । स्वाध्यायादि नियतकालम् । ईर्यापथाद्यनियतकालम् ।" -सर्वार्थ० ९।१८ । (२) "तत्र सामायिकं नाम शत्रुमित्रसुखादिषु । रागद्वेषपरित्यागात् समभावस्य वर्णकम् ॥" -हरि० १०.१२९। घ० सं० पृ० ९६ । गो० जीव० जी० गा० ३६८॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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