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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेजदोसविहत्ती ७२. सोलहसयचोत्तीसकोडि-तियासीदिलक्ख-अट्ठहत्तरिसय-अहासीदिअक्खरेहि एग मज्झिमपदं होदि । उत्तं च "सोलहसयचोत्तीस कोडीओ तियअसीदिलक्ख च । सत्तसहस्सहसदं अट्ठासीदी य पदवण्णा ॥३७॥" १६३४८३०७८८८। एदेण पुव्वंगाणं पदसंखा परूविज्जदे । उत्तं च "तिविहं पदं तु भणिद अस्थपद-पमाण-मझिमपदं ति । मज्झिमपदेण भणिदा पुज्वंगाणं पदविभागा ॥३८॥" $ ७३. मज्झिमपदक्खरेहि सयलसुदणाणसंजोगक्खरेसु ओवट्टिदेसु बारहोत्तरसयकोडि-तेयासीदिलक्ख-अहवंचाससहस्स-पंच सयलसुदणाणपदाणि होति । उत्तं चहै अर्थात् उसका उच्चारण करना व्यर्थ है। इसलिये आचार्योंका अर्थालाप पदको करता है अर्थात् आचार्य विवक्षित अर्थका कथन करनेकेलिये जितने शब्द उच्चारण करते हैं उनके समूहका नाम अर्थपद है ॥३६॥" ७२. सोलह सौ चौंतीस करोड़ तेरासी लाख अठत्तरसौ अठासी अक्षरोंका एक मध्यमपद होता है । कहा भी है ___ "मध्यमपदमें सोलहसौ चौतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठसौ अठासी १६३४८३०७८८८ अक्षर होते हैं ॥३७॥" इस मध्यमपदके द्वारा पूर्व और अंगोंके पदोंकी संख्याका प्ररूपण किया जाता है । कहा भी है-- ___ "अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद इसप्रकार पद तीन प्रकारका कहा गया है। उनमेंसे मध्यमपदके द्वारा पूर्व और अङ्गोंके पदोंके विभागका कथन किया है ॥३८॥" ७३. मध्यमपदके अक्षरोंके द्वारा श्रुतज्ञानके संपूर्ण संयोगी अक्षरोंके अपवर्तित अर्थात् भाजित करने पर सकल श्रुतज्ञानके एकसौ बारह करोड़, तेरासी लाख, अट्ठावन हजार पांच पद होते हैं। कहा भी है (१) "षोडशशतं चतुस्त्रिंशत् कोटीनांत्र्यशीतिलक्षाणि ।शतसंख्याष्टासप्ततिमष्टाशीति च पदवर्णान् ॥" -सं०श्रत० श्लो०२३. “सोलससदचोत्तीसकोडि-तेसीदिलक्ख-अटठहत्तरिसद-अटठासीदिसंजोगक्खरेहि मज्झिमपदमेगं होदि ।"-ध० आ०प०५४६ । (२) गो. जीव० गा०३३६ । “सोलससयचोत्तीसा कोडी तियसीदिलक्खयं जत्थ । सत्तसहस्सट्ठसयाऽडसीदऽपुणरुत्तपदवण्णा ॥"-अंगप० गा० ५। (३) "पूर्वाङ्गपदसंख्या स्यात् मध्यमेन पदेन सा।"-हरि० १०।२५ । ध० आ० ५० ५४६ । “मज्झिमपदक्खरवहिंदवण्णा ते अंगपुव्वगपदाणि ।"-गो० जीव० गा० ३५५। अंगप० गा०२।(४)-तियासीदि-अ०, आ० ।-तीयासीदि-स० । (५) ध० आ० ५० ५४६ । "कोटीनां द्वादशशतमष्टापंचाशतं सहस्राणाम् । लक्षत्र्यशीतिमेव च पंच च वंदे श्रुतपदनि ॥"-सं० श्रुत० श्लो० २२ । हरि० १०॥१२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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