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________________ ७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती ? समचउरस्ससंठाण-वज्जरिसहसंघडण-दिव्वगंध-पमाणणहरोम-णिराहरणभासुरसोम्मवयण-णिरंबर-मणोहर-णिराउअ-सुणिन्भयादिणाणागुणसहियदिव्वदेहधरेण, रायदोसकसायिं दियचउविहोवसग्ग-बाबीसपरीसहादिसयलदोसविरहिएण, जोयणंतरदूरसमीवत्थहारसदेसभासकुभासाजुद-देव-तिरिक्ख-मणुस्साणं सगसगभासाजुद-हीणाहियभावविरहियमहुर-मणोहर-गंभीर-विसदवागा (ग) दिसयसंपण्णेण, भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियसोहम्मीसाणादिकप्पवासिय-चक्कवट्टि-बल-णारायण-विजाहर-रायाहिरीय-मंडलीय-महामंडलीय-इंदग्गि-वाउ दि-सिंघ-वालादि-देव-मणुव-मुणि - मइंदेहितो पत्तपूजादिसयेण सम्मत्त-णाण-दसण-वीरियावगाहणागुरुवलहुअ-अव्वाबाह-सुहुमत्तादिगुणेहि सिद्धसारिच्छेण वड्ढमाणभडारएण उवइत्तादो पमाणं दव्वागमो । उत्तं चसंस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन, दिव्यगंध, योग्य प्रमाणरूपसे स्थित नख और रोम, आभरणोंसे रहितपना, दैदीप्यमान और सौम्य मुख, वस्त्रसे रहितपना, मनोहर, आयुधसे रहितपना, और अत्यन्त निर्भयपना आदि नानागुणोंसे युक्त दिव्य देहको धारण करनेवाले; रागद्वेष कषाय और इन्द्रियोंसे तथा देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत चार प्रकारके उपसर्ग, और बाईस परीषह आदि समस्त दोषोंसे रहित; एक योजनके भीतर दूर या समीप बैठे हुए नानादेशसंबन्धी अठारह महाभाषा और (सातसौ) लघुभाषाओंसे युक्त ऐसे देव, तिर्यंच और मनुष्योंकी, अपनी अपनी भाषारूपसे परिणत, तथा न्यूनता और अधिकतासे रहित, मधुर, मनोहर, गंभीर और विशद इन भाषाके अतिशयोंसे युक्त; भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म ऐशान आदि कल्पवासी, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, विद्याधर, राजा, अधिराजा, मंडलीक, महामंडलीक, इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, सिंह, व्याल आदि देव मनुष्य मुनि और तिर्यञ्चोंके इन्द्रोंसे पूजाके अतिशयको प्राप्त हुए और क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य, अवगाहनत्व, अगुरुलघु, अव्याबाध और सूक्ष्मत्व आदि गुणोंसे सिद्धके समान वर्द्धमानभट्टारकके द्वारा उपदिष्ट होनेसे द्रव्यागम प्रमाण है। कहा भी हैमोक्खेहिं । इयपहुदिदेहदोसेहिं संततमदूसिदसरीरो ॥ आदिमसंहणणजुदो समचउरस्संगचारुसंठाणो। दिव्ववरगंधधारी पमाणदिरोमणखरूवो । णिब्भूसणायुधंबरभीदी सोम्माणणादिदिव्वतणू । अट्ठब्भहियसहस्सपमा. णवरलक्खणोपेदो ॥ चउविहउवसग्गेहिं णिच्चविमुक्को कसायपरिहीणो । छहपहुदिपरिसहेहिं परिचत्तो रायदोसेहिं ।। जोयणपमाणसंठिदतिरियामरमणवनिवहपडिबोहो । मिदमधुरगभीरतरा विसदविसयसयलभासाहिं। अटठरसमहाभासा खल्लयभासा वि सत्तसयसंखा । अक्खरअणक्खरप्पयसण्णीजीवाण सयलभासाओ। एदासि भासाणं तालुवदंतोट्ठकंठवावारं । परिहरिय एककालं भव्वजणाणंदकरभासो। भावणवेंतरजोयसियकप्पवासेहि केसवबलेहि। विज्जाहरेहिं चक्किप्पमुहेहि णरेहि तिरिएहि । एदेहि अण्णेहि विरचिदचरणारविन्दजुगपूजो । दिट्ठसयलट्ठसारो महावीरो अत्थकत्तारो ॥"-ति० प० ११५४-६४ । औपपा० सू० १० । 12-बलिणाराय-स० । (२) "पंचसयरायसामी अहिराजो होदि कित्तिभरिददिसो। रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महराजा ॥ दुसहस्समउडबद्धभुववसहो तच्च अद्धमंडलिओ। चउराजसहस्साणं अहिणाउ होइ मंडलियं ।। महमंडलिओ णामो अट्ठसहस्साणमहिवई ताणं ।।"-ति० ५० ११४५-४७। (३)"इन्द्राग्निवायभत्याख्या: कौडिन्याख्याश्च पण्डिताः । इन्द्रनोदनयायाताः समवस्थानमर्हतः ॥"-हरि०२१६८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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