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गा० १]
दब्बागमस्स पमागत्तं $ ५३. अह जइ सो भुंजइ तो बलाउ-सौदु-सरीरुवचय-तेज-सुहटुं चेव भुंजइ संसारिजीवो व्व; ण च एवं, समोहस्स केवलणाणाणुववत्तीदो । ण च अकेवलिवयणमागमो, रागदोसमोहकलंकंकिए हरि-हर-हिरण्णगब्भेसु व सच्चाभावादो। आगमाभावे ण तिरयणपउत्ति त्ति तित्थवोच्छेदो चेव होज्ज, ण च एवं, तित्थस्स णिब्बाहबोहविसयीकयस्स उवलंभादो । तदो ण वेयणीयं घाइकम्मणिरवेक्खं फलं देदि त्ति सिद्धं ।
५४. तम्हा सेय-मल-रय-रत्तणयण-कदक्खसरमोक्खादिसरीरगयदोसविरहिएण इसीप्रकार वेदनीय कर्म भी उनके सुख और दुःखरूप बाधाका कारण नहीं है, क्योंकि वेदनीय कर्म स्वयं सुख और दुखके उत्पन्न करने में असमर्थ है। जबतक उसे चारों घातिया कर्मोंकी और प्रधानतया मोहनीय कर्मकी सहयता नहीं मिलती है तबतक जीवको भूख और प्यास आदिरूप बाधाएँ उत्पन्न नहीं होती हैं। आगममें केवली जिनके जो क्षुधा आदि ग्यारह परीषहोंका सद्भाव बतलाया है उसका कारण केवली जिनके वेदनीय कर्मका पाया जानामात्र है। पर वेदनीय कर्म मोहनीयके बिना स्वयं कार्य करने में असमर्थ है, इसलिये वहाँ ग्यारह परीषह उपचारसे ही समझना चाहिये वास्तव में नहीं । वेदनीयको मोहनीयके पहले कहनेका भी यही कारण है। इसप्रकार चारों अघातिया कर्मोंके उदयके रहते हुए भी वे देवत्वके बाधक नहीं हैं यह सिद्ध हो जाता है।
५३. यदि केवली जिन भोजन करते हैं तो संसारी जीवोंके समान वे बल, आयु, स्वादिष्ट भोजन, शरीरकी वृद्धि, तेज और सुखके लिये ही भोजन करते हैं ऐसा मानना पड़ता है, परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वे मोहयुक्त हो जायँगे और इसलिये उनके केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी।
यदि कहा जाय कि जब कि जिनदेवको केवलज्ञान नहीं होता है तो केवलज्ञानसे रहित जीवके बचन ही आगम हो जावें, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर राग, द्वेष और मोहसे कलंकित उनमें विष्णु, महादेव और ब्रह्माकी तरह सत्यताका अभाव हो जायगा और सत्यताका अभाव होनेसे उनके वचन आगम नहीं कहे जा सकेंगे। तथा इसप्रकार आगमका अभाव हो जाने पर रत्नत्रयकी प्रवृत्ति नहीं बन सकेगी जिससे तीर्थका व्युच्छेद ही हो जायगा । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि निर्बाध बोधके द्वारा ज्ञात तीर्थकी उपलब्धि बराबर होती है। अतएव यह सिद्ध हुआ कि घातिकर्मोंकी अपेक्षाके बिना वेदनीय कर्म अपने फलको नहीं देता है।
५४. इसलिये पसीना, मल, रज अर्थात् बाह्य कारणोंसे शरीर पर चढ़ा हुआ मैल, रक्त नयन, और कटाक्षरूप बाणोंका छोड़ना आदि शरीरगत समस्त दोषोंसे रहित, समचतुरस्र
(२) तुलना-"ण बलाउसाउअट्ठ ण सरीरस्सुवचयट्ठतेजठं। णाणट्ठसंजमलैंझाणटेंचेव भुजेज्जो॥" -मूलाचा० ६.६२। (२) तुलना-"न स्वादार्थं शोभनोस्य स्वादो भोजनस्येत्येवमर्थं न भुडक्ते"-म० टी० ६।६२। (३)-कलंकीये अ०, आ० । (४) सयलमल-अ०, आ० । “सेदरजाइमलेणं रत्तच्छिकदक्खबाण
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