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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेज्जदोसविहत्ती ? हियविप्पकिहत्थेसु वि अक्कमेण वावदस्स जीवदव्वस्सुवलंभादो। ण च समुदायकज्जमेगंसे ण दीसदि त्ति तस्स तदंसत्तं फिट्टदि; हत्थकज्जमकुणमाणियाए कालंगुलियाए वि हत्थावयवत्ताभावप्पसंगादो। तदो केवलणाणं ससंवेयणपञ्चक्खसिद्धमिदि हिदं। ६३७. एदस्स पमाणस्स वढि-हाणि-तर-तमभावो ण ताव णिक्कारणो वढिहाणिहि विणा एगसरूवेणावहाणप्पसंगादो । ण च एवं; तहाणुवलंभादो । तम्हा सकारणाहि ताहि होइव्वं । जं तं हाणि-तर-तमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्धं । आवरणं चावरिज्जमाणेण विणा ण होदि त्ति केवलणाणसेसावयवाणमत्थित्तं गम्मदे । तदो आवरिदावयवो सव्वपज्जवो पच्चक्खाणुमाणविसओ होदूण सिद्धो। __६३८. कम्मं पि सहेउअंतविणासण्णहाणुववत्तीदो णव्वदे । ण च कम्मविणासो ज्ञानरूप नहीं हो सकता है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कभी कभी जीवद्रव्य सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट अर्थों में भी युगपत् प्रवृत्ति करता हुआ पाया जाता है। यदि कहा जाय कि समुदायसाध्य कार्य उसके एक अंशमें नहीं दिखाई देता है, अर्थात् समुदाय जो कार्य कर सकता है वह कार्य उसका एक अंश नहीं कर सकता है इसलिये वह ज्ञानविशेष केवलज्ञानका अंश नहीं रहता है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर हाथका कार्य नहीं कर सकनेवाली हाथकी एक अंगुलीको भी हाथका अवयव नहीं माना जा सकेगा। इसलिये केवलज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध है यह निश्चित हो जाता है। ६३७. इस ज्ञानप्रमाणका वृद्धि और हानिके द्वारा जो तर-तमभाव होता है वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ज्ञानप्रमाणमें वृद्धि और हानिसे होनेवाले तर-तमभावको निष्कारण मान लेने पर वृद्धि और हानिरूप कार्यका ही अभाव हो जाता है और ऐसी अवस्थामें वृद्धि और हानिके न होनेसे ज्ञानके एकरूपसे स्थित रहनेका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि ज्ञान एक रूपसे अवस्थित रहता है तो रहने दो सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एकरूपसे अवस्थित ज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती है, अतः ज्ञानप्रमाणमें होनेवाली वृद्धि और हानिके सकारण सिद्ध हो जाने पर उसमें जो हानिके तरतमभावका कारण है वह आवरण कर्म है, यह सिद्ध हो जाता है। तथा आवरण उस पदार्थके बिना नहीं बनता है जिसका कि आवरण किया जाता है इसलिये केवलज्ञानके प्रकट अंशोंके अतिरिक्त शेष अवयवोंका अस्तित्व जाना जाता है, अतः सर्वपर्यायरूप केवलज्ञान अवयवी, जिसके कि प्रकट अंशोंके अतिरिक्त शेष अवयव आवृत हैं, प्रत्यक्ष और अनुमानके द्वारा सिद्ध है अर्थात् उसके प्रकट अंश स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा सिद्ध हैं और आवृत अंश अनुमान प्रमाणके द्वारा सिद्ध हैं। ६३८. तथा यदि कर्मोंको अहेतुक माना जायगा तो उनका विनाश बन नहीं सकता है, (१)-माणियायेकालंगु-स०, अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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