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________________ गा० १] केवलणाणसिद्धी जीववदिरित्तणाणाभावेण जीवस्स वि उप्पत्तिप्पसंगादो। होदु चे; ण; अणेयंतप्पयस्स जीवदव्वस्स पत्तजचंतरभावस्स गाणदंसणलक्खणस्स एअंतवाइविसईकय-उप्पाय-वयधुवत्ताणमभावादो जीवदव्वमेरिसं चेवेत्ति घेत्तव्वं, अण्णहा अवयवावयवि-णिच्चाणिच्चसामण्णविसेस-एयाणेय-विहिणिसेह-चेयणाचेयणादिवियप्पचउकमहापायाले णिवदियस्स सयलपमाणसरूवस्स जीवदव्वस्स अभावप्पसंगादो। ६३६. ण च इंदियमवेक्खिय जीवदव्वं परिणमदि त्ति तस्स केवलणाणत्तं फिट्टदि; सयलत्थे अवेक्खिय परिणममाणस्स सव्वपज्जयस्स वि अकेवलत्तप्पसंगादो। ण च सुहुमववहिअ-विप्पकिहत्थे अक्कमेण ण गेण्हदि त्ति केवलणाणं ण होदि, कयावि सुहमव (मवव) शंका-यदि इन्द्रियोंसे जीवकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है तो होओ ? समाधान-नहीं, क्योंकि अनेकान्तात्मक, जात्यन्तरभावको प्राप्त और ज्ञान-दर्शन लक्षणवाले जीवमें एकान्तवादियोंके द्वारा माने हुए सर्वथा उत्पाद, व्यय और ध्रुवत्वका अभाव है। अर्थात् जीवका न तो सर्वथा उत्पाद ही होता है, न सर्वथा विनाश ही होता है और न वह सर्वथा ध्रुव ही है, अतः उसकी इन्द्रियोंसे उत्पत्ति नहीं हो सकती है। ___अतएव जीव द्रव्य अनेकान्तात्मक, जात्यन्तरभावको प्राप्त और ज्ञानदर्शनलक्षणवाला ही है ऐसा स्वीकार करना चाहिये। अन्यथा अवयव-अवयवी, नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष, एक-अनेक, विधि-निषेध और चेतन-अचेतन आदि सम्बन्धी विकल्परूप चार महापातालोंमें पड़ जानेसे सकलप्रमाणस्वरूप जीव द्रव्यके अभावका प्रसंग प्राप्त हो जायगा । विशेषार्थ-जीव द्रव्य अनेकान्तात्मक, जात्यन्तर भावको प्राप्त और ज्ञान-दर्शनलक्षणवाला है। यदि उसे ऐसा न माना जावे तो उसे या तो अवयवरूप या अवयवीरूप या उभयरूप या अनुभयरूप इन चार विकल्पोंमेंसे किसी एक विकल्परूप मानना पड़ेगा। पर विचार करनेसे इनमें से सर्वथा किसी एक विकल्परूप जीवकी सिद्धि नहीं होती है अतः जीवका अभाव हो जायगा । इसीप्रकार नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष, एक-अनेक, विधिनिषेध और चेतन-अचेतन इनमें भी उक्त प्रकारसे होनेवाले चार विकल्पोंमेंसे किसी एक विकल्परूप जीव द्रव्यको मानने पर उसकी सिद्धि नहीं हो सकती है। अतः ऊपर जीव द्रव्यका जो स्वरूप बतलाया गया है उसरूप ही जीव द्रव्यको मानना चाहिये । ३६. यदि कहा जाय कि जीवद्रव्य इन्द्रियोंकी अपेक्षासे ( मतिज्ञानादिरूप ) परिणमन करता है, इसलिये उसके इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानमें केवलज्ञानपना अर्थात् असहाय ज्ञानपना नहीं बन सकता है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर यद्यपि केवलज्ञान समस्त पर्यायरूप है तो भी वह समस्त पदार्थोंकी अपेक्षासे परिणमन करता है अतः उसे भी अकेवलज्ञानत्वका प्रसंग प्राप्त हो जायगा । ___ यदि कहा जाय कि जीवद्रव्य परमाणु आदि सूक्ष्म अर्थोंको, मेरु आदि व्यवहित अर्थोंको और राम आदि विप्रकृष्ट अर्थोंको एकसाथ ग्रहण नहीं करता है इसलिये वह केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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