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________________ गां ० १ ] केवलासिद्धी ५३ दव्वाभावो; पच्चक्खेण बाहुवलंभादो, सव्वस्स संप्पडिवक्खस्सुवलंभादो च । उत्तं च"सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणतपज्जाया । गुप्पा धुवत्ता सप्पविक्खा हवइ एक्का || ६ ॥” त्ति । अपने प्रतिपक्ष सहित ही उपलब्ध होते हैं, इसलिये भी अचेतन पदार्थके प्रतिपक्षी चेतन द्रव्यके अस्तित्वकी सिद्धि हो जाती है । कहा भी है " सत्ता समस्त पदार्थोंमें स्थित है, विश्वरूप है, अनन्त पर्यायात्मक है, व्यय, उत्पाद और ध्रुवात्मक है, तथा अपने प्रतिपक्षसहित है और एक है ॥ ६ ॥ ," विशेषार्थ - पदार्थ न सर्वथा नित्य ही हैं और न क्षणिक ही हैं किन्तु नित्यानित्यात्मक हैं । उनमें स्वरूपका अवबोधक अन्वयरूप जो धर्म पाया जाता है उसे सत्ता कहते हैं । वह सत्ता उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप समस्त पदार्थोंके सादृश्य की सूचक होनेसे एक है । समस्त पदार्थोंमें 'सत्' इसप्रकारका वचनव्यवहार और 'सत्' इस प्रकारका ज्ञान सत्तामूलक ही पाया जाता है इसलिये वह समस्त पदार्थोंमें स्थित है । समस्त पदार्थ रूप अर्थात् उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन त्रिलक्षणात्मक स्वभाव के साथ विद्यमान हैं, इसलिये वह सत्ता सविश्वरूप है । अनन्त पर्यायोंसे वह जानी जाती है, इसलिये अनन्तपर्यायात्मक है । यद्यपि सत्ता इसप्रकार की है फिर भी वह सर्वथा स्वतन्त्र न होकर अपने प्रतिपक्षसहित है । अर्थात् सत्ताका प्रतिपक्ष असत्ता है, त्रिलक्षणात्मकत्वका प्रतिपक्ष अत्रिलक्षणात्मकत्व है, वह समस्त पदार्थोंमें स्थित है इसका प्रतिपक्ष एक पदार्थस्थितत्व है, सविश्वरूपत्वका प्रतिपक्ष एकरूपत्व है और अनन्त पर्यायात्मकत्वका प्रतिपक्ष एक पर्यायात्मकत्व है । इस कथन यह निष्पन्न होता है कि सत्ता दो प्रकारकी है महासत्ता और अवान्तरसत्ता | महासत्ताका स्वरूपनिर्देश तो ऊपर किया जा चुका है । अवान्तरसत्ता प्रतिनियत वस्तुमें रहती है, क्योंकि इसके बिना प्रतिनियत वस्तुके स्वरूपका ज्ञान नहीं हो सकता है । अतः महासत्ता अवान्तर सत्ताकी अपेक्षा असत्ता है और अवान्तरसत्ता महासत्ताकी अपेक्षा असत्ता है । वस्तुका जिस रूप से उत्पाद होता है वह उस रूपसे उत्पादात्मक ही है । जिस रूप से व्यय होता है उस रूपसे वह व्ययात्मक ही है । तथा जिस रूपसे वस्तु ध्रुव है उस रूपसे वह धौव्यात्मक ही है। इसप्रकार वस्तुके उत्पन्न होनेवाले, नाशको प्राप्त होनेवाले और स्थित रहनेवाले धर्म त्रिलक्षणात्मक नहीं हैं, अतः त्रिलक्षणात्मक सत्ताकी अत्रिलक्षणात्मक सत्ता प्रतिपक्ष है। एक पदार्थ की जो स्वरूपसत्ता है वह अन्य पदार्थोंकी नहीं हो सकती है, अतः प्रत्येक पदार्थ में रहनेवाली स्वरूप सत्ता सर्व पदार्थोंकी सर्वथा एकत्वरूप महासत्ताकी प्रतिपक्ष है। 'यह घट है पट नहीं' इस प्रकारका प्रतिनियम प्रतिनियत पदार्थ में स्थित सत्ताके द्वारा ही (१) तुलना - " अद्वैतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित् ॥ अद्वैतशब्दः स्वाभिधेयप्रत्यनीकपरमार्थापेक्षः, नञ्पूर्वाखण्डपदत्वात् अहेत्वभिधानवत् । " - आप्तमी०, अष्टश० इलो० २७ । (२) पञ्चा० गा० ८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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