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________________ ५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ ज्जत्तकाले इंदियाभावेण णाणाभावप्पसंगादो । ण च एवं; जीवदव्वाविणाभाविणाणदंसणाभावे जीवदव्वस्स वि विणासप्पसंगादो। ण च अचेयणालक्खणो जीवो; अजीवेहिंतो वयिसेसियलक्खणाभावेण जीवदव्वस्स अभावप्पसंगादो। णेदं वि; पमाणाभावेण सयलपमेयाभावप्पसंगादो। ण चेदं तहाणुवलंभादो। किंच, पोग्गलदव्वं पि जीवो होज्ज; अचेयणत्तं पडि विसेसाभावादो। ण च अमुत्ताचेयणलक्खणो जीवो धम्मदव्वस्स वि जीवत्तप्पसंगादो। ण चायण (णा) मुत्तासव्वगयलक्खणो जीवो; तेणेव वियहिचारादो । ण च सव्वगंयामुत्ताचेयणलक्षणो; आयासेण वियहिचारादो। ण च चेयणज्ञानके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि अपर्याप्त अवस्थामें ज्ञानका अभाव होता है तो हो जाओ, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यावत् जीव द्रव्यमें रहनेवाले और उसके अविनाभावी ज्ञान दर्शनका अभाव मानने पर जीव द्रव्यके भी विनाशका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि ज्ञान और दर्शनका अभाव होने पर भी जीवका अभाव नहीं होगा, क्योंकि जीवका लक्षण अचेतना है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अजीव द्रव्योंसे भेद करानेवाले जीवके विशेष लक्षण ज्ञान और दर्शनका अभाव हो जानेसे जीव द्रव्यके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि इसतरह जीव द्रव्यका अभाव होता है तो हो जाओ, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जीव द्रव्यका अभाव होनेसे ज्ञान प्रमाणका अभाव प्राप्त होता है और ज्ञापक प्रमाणके अभावसे सकल प्रमेयोंके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि इसप्रकारकी उपलब्धि नहीं होती है । अर्थात् समस्त प्रमेयोंका अभाव प्रतीत नहीं होता है। दूसरे यदि जीवका लक्षण अचेतना माना जायगा तो पुद्गल द्रव्य भी जीव हो जायगा, क्योंकि अचेतनत्वकी अपेक्षा इन दोनोंमें कोई विशेषता नहीं रह जाती है। पुद्गलसे जीवको जुदा करनेके लिये यदि जीवका लक्षण अमूर्त और अचेतन माना जाय, सो भी नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर धर्मद्रव्यको भी जीवत्वका प्रसंग प्राप्त होता है। जीवका लक्षण अचेतन, अमूर्त और असर्वगत भी नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसी धर्म द्रव्यसे यह लक्षण व्यभिचरित अर्थात् अतिव्याप्त हो जाता है । जो लक्षण लक्ष्यके सिवाय अलक्ष्यमें चला जाता है उसे व्यभिचरित या अतिव्याप्त कहते हैं। जीवका लक्षण अचेतन, अमूर्त और असर्वगत मानने पर वह धर्मद्रव्यमें भी पाया जाता है, अत: यहां लक्षणको अतिव्याप्त कहा है। उसीप्रकार जीवका लक्षण सर्वगत, अमूर्त और अचेतन भी नहीं हो सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर आकाशसे यह लक्षण व्यभिचरित अर्थात् अतिव्याप्त हो जाता है। और चेतन द्रव्यका अभाव किया नहीं जा सकता है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाणके द्वारा स्पष्टरूपसे चेतन द्रव्यकी उपलब्धि होती है । तथा समस्त पदार्थ (१)-गयमुत्ता-अ०, आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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