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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेज्जदोसविहत्ती णाणाभावेण जीवाभावप्पसंगादो। अत्थि तत्थ णाणसामण्णं ण णाणविसेसो तेण जीवाभावो ण होदि तिचे ण; तब्भावलक्खणसामण्णादो पुधभूदणाणविसेसाणुवलंभादो। तदो जावदव्वभाविणाणदंसणलक्खणो जीवो ण जायइण मरइ; जीवत्तणिबंधणणाणदंसणाणमपरिचागदुवारेण पज्जयंतरसंकंतीदो । ण च णाणविसेसदुवारेण जाय तो इन्द्रियव्यापारके पहले जीवके गुणस्वरूप ज्ञानका अभाव हो जानेसे गुणी जीवके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। शंका-इन्द्रियव्यापारके पहले जीवमें ज्ञानसामान्य रहता है ज्ञानविशेष नहीं, अतः जीवका अभाव नहीं प्राप्त होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि तद्भावलक्षण सामान्यसे अर्थात् ज्ञानसामान्यसे ज्ञानविशेष पृथग्भूत नहीं पाया जाता है । अतः यावत् द्रव्यमें रहनेवाले ज्ञान और दर्शन लक्षणवाला जीव न तो उत्पन्न होता है और न मरता है, क्योंकि जीवत्वके कारणभूत ज्ञान और दर्शनको न छोड़कर ही जीव एक पर्यायसे दूसरी पर्यायमें संक्रमण करता है। विशेषार्थ-प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है। वस्तुके अनुवृत्ताकार धर्मको सामान्य और व्यावृत्ताकार धर्मको विशेष कहते हैं । सामान्यके तिर्यक्सामान्य और ऊर्ध्वतासामान्य इसप्रकार दो भेद हैं। एक ही समयमें नाना पदार्थगत सामान्यको तिर्यक्सामान्य कहते हैं । जैसे, रंग आकार आदिसे भिन्न भिन्न प्रकारकी गायोंमें गोत्व सामान्यका अन्वय पाया जाता है। एक पदार्थकी पूर्वोत्तर अवस्थाओं में व्याप्त होकर रहनेवाले सामान्यको ऊर्ध्वतासामान्य कहते हैं । जैसे, एक मनुष्यकी बालक, युवा और वृद्ध अवस्थाओंमें उसीके मनुष्यत्वसामान्यका अन्वय पाया जाता है। विशेष भी पर्याय और व्यतिरेकके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे एकद्रव्यमें जो क्रमसे परिवर्तन होता है उसे पर्याय विशेष कहते हैं। जैसे, एक ही आत्मामें क्रमसे होनेवाली अवग्रह, ईहा आदि ज्ञानधाराएँ। एक पदार्थसे दूसरे पदार्थकी विलक्षणताका ज्ञापक परिणाम व्यतिरेकविशेष कहलाता है। जैसे स्त्री और पुरुषमें पाया जानेवाला विलक्षण धर्म । इनमेंसे तिर्यक्सामान्य अनेक पदार्थों के एकत्वका और व्यतिरेकविशेष एक पदार्थसे दूसरे पदार्थके भेदका ज्ञापक है। तथा ऊर्ध्वतासामान्य और पर्यायविशेष ये प्रत्येक पदार्थको उत्पाद, व्यय और ध्रुवरूप सिद्ध करते हैं। ऊर्ध्वतासामान्य जहाँ प्रत्येक पदार्थके ध्रुवत्वका बोध कराता है वहाँ पर्यायविशेष उसके उत्पाद और व्ययभावका ज्ञान कराता है । इससे इतना सिद्ध होता है कि प्रत्येक पदार्थ किसी अपेक्षा दूसरेके समान है, किसी अपेक्षा दूसरेसे विलक्षण है। तथा किसी अपेक्षा ध्रुवस्वभाव और किसी अपेक्षा उत्पाद-व्ययस्वभाव है। इसप्रकार एक पदार्थके कथंचित् सदृश, कथंचित् विसदृश, कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य सिद्ध हो जाने पर जीवका ज्ञानधर्म भी कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य सिद्ध हो जाता है, क्योंकि ज्ञानका जीवसे सर्वथा भेद नहीं पाया जाता है, अतः जीवमें जिसप्रकार नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म बन जाते हैं उसीप्रकार ज्ञानमें भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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