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________________ गा ? केवलणाणसिद्धी णाणुववत्तीदो। ण च समवाओ किरियावंतो; अणिचंदव्वत्तप्पसंगादो। ण च अण्णेण आणिज्जदि; अणवत्थाप्पसंगादो। तदो जच्चतरत्तं सव्वत्थाणमिच्छिदव्वं । तदो ण एगो उव (एगोव ) लंभो; दोण्हमक्कमेणुवलंभादो । ३४. करणजणिदत्तादो णेदं णाणं केवलणाणमिदि चे;णः करणवावारादो पुव्वं पहले अन्यत्र रहता है और कार्यकालमें वहाँ आ जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय स्वयं क्रियारहित है, इसलिये उसका आगमन नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि समवायको क्रियावान मान लिया जाय, सो भी बात नहीं है, क्योंकि समवायको क्रियावान मानने पर उसे अनित्यद्रव्यत्वका प्रसंग प्राप्त होता है । विशेषार्थ-वैशेषिकमतमें द्रव्यवृत्ति अर्थात् द्रव्यमें रहनेवाले अवयचिद्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष ये पांच पदार्थ हैं। इनमें सिर्फ अवयविद्रव्य ही क्रियावान है। तात्पर्य यह है कि द्रव्य में रहनेवाला क्रियावान पदार्थ अनित्य द्रव्य होता है। अतः यदि समवायको क्रियावान् माना जाता है तथा वह द्रव्यमें रहता है तो उसे अनित्य द्रव्यत्वका प्रसङ्ग प्राप्त होगा। अथवा क्रियावान होनेसे समवाय द्रव्य सिद्ध हुआ। क्रियावान द्रव्य दो प्रकारके होते हैं एक परमाणुरूप और दूसरे कार्यरूप । इनमेंसे समवाय परमाणुरूप तो माना नहीं जा सकता है, क्योंकि समवायको परमाणुरूप मानने पर वह एक साथ अनेक सम्बन्धियोंमें समवायी व्यवहार नहीं करा सकेगा। ऐसी अवस्थामें समवायको कार्यरूप द्रव्य ही मानना पड़ेगा और ऐसा माननेसे उसमें अनित्यत्वका प्रसङ्ग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि समवाय स्वयं तो नहीं आता है, किन्तु अन्यके द्वारा लाया जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्थादोषका प्रसंग प्राप्त होता है। अर्थात् जिसप्रकार समवाय दूसरेके द्वारा लाया जाता है उसीप्रकार वह दूसरा भी किसी तीसरेके द्वारा लाया जायगा और इसतरह अनवस्थादोष प्राप्त होता है। अतः अवयव-अवयवी आदि समस्त पदार्थोंका जात्यन्तर संबन्ध अर्थात् कथंचित् तादात्म्यसंबन्ध स्वीकार करना चाहिये । इसलिये केवल एक अवयव या अवयवीकी उपलब्धि नहीं होती है, किन्तु कथंचित् तादात्म्यसंबन्ध होनेसे दोनोंकी एकसाथ उपलब्धि होती है । इसप्रकार ऊपर केवलज्ञानके अवयवभूत मतिज्ञानादिका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होनेसे अवयवीरूप केवलज्ञानके अस्तित्वका भी ज्ञान हो जाता है यह सिद्ध किया जा चुका है। अब आगे प्रकारान्तरसे केवलज्ञानकी सिद्धि करते हैं ३४. शंका-इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञान आदिको केवलज्ञान नहीं कहा जा सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि यदि ज्ञान इन्द्रियोंसे ही पैदा होता है, ऐसा मान लिया (१) द्रव्यवृत्तिक्रियावतः पदार्थस्य अनित्यद्रव्यत्वनियमात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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