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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेजदोसविहत्ती यवा; पुव्वुत्तदोसप्पसंगादो । ण च णिरवयवा; गद्दहसिंगेण समाणत्तप्पसंगादो । ण च अवयवी अवयवेसु वड; अवयविस्स कमाकमेहि वट्टमाणस्स सावयवाणवत्गदव्वउत्ति-सेसावयवाणवयवत्ताभाव-बहिलंबउत्तिआदिअणेयदोसप्पसंगादो । देशोंसे रहेगा इसतरह अन्य अन्य देशोंकी कल्पनासे अनवस्था नामका दूषण आ जाता है। यदि कहा जाय कि अवयव सावयव हैं, सो भी बात नहीं है, क्योंकि अवयवोंको सावयव मानने पर पूर्वोक्त अनवस्था दोषका प्रसंग प्राप्त होता है। अर्थात् जिन अवयवोंसे विवक्षित अवयव सावयव माने जायंगे वे अवयव भी अन्य अवयवोंसे ही सावयव होंगे। इसप्रकार पूर्व पूर्व अवयवोंकी सावयवताके लिये उत्तरोत्तर अवयवान्तरोंकी कल्पना करने पर अनवस्था दोषका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि अवयव स्वयं निरवयव हैं, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, अवयवोंको निरवयव मानने पर उनमें गधेके सींगके साथ समानताका प्रसंग आ जायगा । अर्थात् जिस तरह गधेके सींगकी सत्ता नहीं पाई जाती है, उसीप्रकार अवयवोंको निरवयव मानने पर उनकी भी सत्ता नहीं पाई जायगी। यदि कहा जाय कि अवयवी अपने अवयवोंमें रहता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अवयवी अपने अवयवोंमें क्रमसे रहता है या अक्रमसे रहता है ये दो विकल्प उत्पन्न होते हैं, और इन दोनों विकल्पोंके मानने पर अवयवीको सावयवत्व, अनवस्था, एकद्रव्यवृत्ति, शेष अवयवोंको अनवयवपना, अभाव और बहिर्लम्बवृत्ति आदि अनेक दोषोंका प्रसंग प्राप्त होता है। विशेषार्थ-यहाँ क्रम कालकी अपेक्षा न लेकर देशकी अपेक्षा लेना चाहिये । अर्थात् अवयवी अपने अवयवोंमें क्रमसे-एकदेशसे रहता है या अक्रमसे-संपूर्णरूपसे या सकल देशोंसे रहता है ? यदि एकदेशसे रहता है तो जितने अवयव होंगे उतने ही प्रदेश अवयवीके मानने होंगे। ऐसी हालतमें अवयवी सावयव हो जायगा । फिर उन प्रदेशोंमें भी वह अवयवी अन्य प्रदेशोंके द्वारा रहेगा, अन्य प्रदेशोंमें भी तदन्य प्रदेशों द्वारा रहेगा इसतरह अनवस्था नामका दूषण क्रमपक्षमें आ जाता है। यदि अवयवी पूरे स्वरूपसे एक अवयवमें रह जाता है तो एक अवयवमें ही उस पूरे अवयवीकी वृत्ति माननी होगी। ऐसी अवस्थामें शेष अवयव उस अवयवीके नहीं कहे जा सकेंगे। आदि शब्दसे इस पक्षमें अवयविबहुत्व नामका दोष भी समझ लेना चाहिए । अर्थात् प्रत्येक अवयवमें यदि अवयवी पूरे स्वरूपसे रहता है तो जितने अवयव होंगे उतने ही अवयवी मानना होंगे। इसीतरह (१) "एकस्यानेकवृत्तिर्न भागाभावाद् बहूनि वा । भागित्वाद्वास्य नैकत्वं दोषो वृत्तेरनाहते ॥" -आप्तमी० श्लो० ६२। युक्त्यनु० श्लो० ५५ । लघी० स्व० श्लो० ३९ । न्यायकुमु० १० २२७ । “पत्तेयमवयवेसु देसेणं सव्वहा व सो होज्जा। देसेणं सावयवोऽवयविबहुत्तं अदेसेणं ॥"-धर्मसं० गा० ६५५ । सन्मति० टी० पृ० ६६६। “यदि सर्वेषु कायोऽयमेकदेशेन वर्तते । अंशा अंशेष वर्तन्ते स च कुत्र स्वयं स्थितः।। सर्वात्मना चेत्सर्वत्र स्थितः कायः करादिषु। कायास्तावन्त एव स्युः यावन्तस्ते करादयः ॥"-बोधिच०पू० ४९५। वाद० टी० पृ० ३० । तस्वसं० पृ०२०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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