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________________ गो० ] केवलणाणसिद्धी भादो। ण च अवयवे पञ्चक्खे संते अवयवी परोक्खो त्ति वोत्तुं जुत्तं; चक्खिदियविसयीकयअवयवत्थंभस्स वि परोक्खप्पसंगादो। ण च एवं, सव्वत्थ विसयववहारस्स अप्पमाणपुरस्सरत्तप्पसंगादो । ण च अप्पमाणपुरस्सरो ववहारो सच्चत्तमल्लियइ। ण च एवं, बाहविवज्जियसव्ववहाराणं सच्चत्तुवलंभादो। अवयविम्हि अप्पडिवण्णे तदवयवत्तं ण सिज्झदि ति ण पञ्चवट्ठादं जुत्तं; कुंभत्थंभेसु वि तथाप्पसंगादो । ण च अवयवीदो अवयवा एअंतेण पुधभूदा अस्थि तथाणुवलंभादो, अवयवेहि विणा अवयविस्स विणिरूवस्स अभावप्पसंगादो । ण च अवयवी सावयवो; अणवत्थाप्पसंगादो। ण च अवयवा सावज्ञानादिक केवलज्ञानके अंशरूप हैं और उनकी उपलब्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे सभीको होती है अतः केवलज्ञानके अंशरूप अवयवके प्रत्यक्ष होने पर केवलज्ञानरूप अवयवीको परोक्ष कहना युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर चक्षु इन्द्रियके द्वारा जिसका एक भाग प्रत्यक्ष किया गया है उस स्तंभको भी परोक्षताका प्रसंग प्राप्त होता है । अर्थात् वस्तुके किसी एक अवयवका प्रत्यक्ष होने पर शेष अवयवोंको तो परोक्ष कहा जा सकता है अवयवीको नहीं। यदि कहा जाय कि अवयवका प्रत्यक्ष होने पर भी अवयवी परोक्ष रहा आवे, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर सभी ज्ञानों में यह प्रत्यक्षज्ञानका विषय है' आदि विषयव्यवहारको अप्रमाणपुरस्सरत्वका प्रसंग प्राप्त होता है। और अप्रमाणपूर्वक होनेवाला व्यवहार सत्यताको प्राप्त नहीं हो सकता है। यदि कहा जाय कि सभी व्यवहार अप्रमाणपूर्वक होनेसे असत्य मान लिये जाँय, सो भी बात नहीं है, क्योंकि जो व्यवहार बाधारहित होते हैं उन सबमें सत्यता पाई जाती है। यदि कोई ऐसा माने कि अवयवीके अज्ञात रहने पर 'यह अवयव इस अवयवीका है' यह सिद्ध नहीं होता है, सो उसका ऐसा मानना भी युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर घट और स्तंभमें भी इसीप्रकारके दोषका प्रसंग प्राप्त होता है। अर्थात् चक्षु इन्द्रियके द्वारा घट और स्तंभरूप पूरे अवयवीका ज्ञान तो होता नहीं है, मात्र उसके अवयवका ही ज्ञान होता है, इसलिये वह अवयव इस घट या स्तंभका है यह नहीं कहा जा सकेगा। ____ यदि कहा जाय कि अवयवीसे अवयव सर्वथा भिन्न हैं, सो भी बात नहीं है, क्योंकि अवयवीसे अवयव सर्वथा भिन्न नहीं पाये जाते हैं। फिर भी यदि अवयवीसे अवयवोंको सर्वथा भिन्न मान लिया जाय तो अवयवोंको छोड़कर अवयवीका और कोई दूसरा रूप न होनेसे अवयवीके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाय कि अवयवी सावयव है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि अवयवीको सावयव मानने पर अनवस्था दोषका प्रसंग प्राप्त होता है । अर्थात् जिन अवयवोंसे अवयवी सावयव है उन अवयवोंमें वह एकदेशसे रहता है या संपूर्णरूपसे ? यदि एकदेशसे रहता है; तो जितने अवयवोंमें उसे रहना है उतने ही देश उस अवयवीके मानना होंगे। फिर उन देशोंमें वह अन्य उतने ही दूसरे (१)-यविपरो-अ०, आ०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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