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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पेज्जदोसविहत्ती ? परूविदो त्ति णेदाणिं परूविज्जदे । तदो णाम दसविहं चेव होदि त्ति एयंतग्गहो ण वत्तव्वो, किंतु छव्विहं पि होदि त्ति घेत्तव्वं । २६. एदेसु छव्विहेसु णामेसु पेजदोसपाहुडं कसायपाहुडमिदि च जाणि णामाणि ताणि कत्थ णिवदंति ? गोण्णयदेसु णिवदंति, पेज्जदोसकसायाणं धारणपोसणगुणेहिंतो इसलिये इस समय उसका कथन नहीं करते हैं। अर्थात् अनादिसिद्धान्तपदनामोंका गौग्यपद, नोगौण्यपद आदि नामोंमें अन्तर्भाव करनेकी विधि ऊपर बतला आये हैं, तदनुसार इन उपर्युक्त संज्ञाओंका यथायोग्य अन्तर्भाव कर लेना चाहिये, यहां अलगरूपसे उसके कथन करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसप्रकार ऊपर छह प्रकारके नामोंका कथन किया गया है और शेष नामोंका उनमें अन्तर्भाव कैसे हो जाता है यह बतलाया है। अत: नाम दस प्रकारका ही होता है ऐसा एकान्तरूपसे आग्रह करके कथन नहीं करना चाहिये । किन्तु नाम छह प्रकारका भी होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। विशेषार्थ-यद्यपि श्रीधवला आदिमें नामके दस भेद कहे हैं और यहां चूर्णिसूत्रकारने नामके कुल छह भेद ही कहे हैं । तो भी इन दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि वहां नामके भेद गिनाते समय अधिकसे अधिक भेदोंके कथन करनेकी मुख्यतासे दस भेद कहे गये हैं। और यहां अन्तर्भाव करके छह भेद गिनाये गये हैं। किन किन नामोंका किन किन नामोंमें अन्तर्भाव हो जाता है, यह ऊपर दिखला ही आये हैं, इसलिये विवक्षाभेदसे नामके दस या छह भेद समझना चाहिये ।। २६. शंका-इन छह प्रकारके नामपदोंमेंसे पेज्जदोषप्राभृत और कषायप्राभृत ये नाम किन नामपदोंमें अन्तर्भूत होते हैं ? समाधान-गौण्यपदनामोंमें ये दोनों नाम अन्तर्भूत होते हैं, क्योंकि पेज, दोष और कषायके धारण और पोषण गुणकी अपेक्षा इन दोनों नामोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है । विशेषार्थ-प्र और आ उपसर्ग पूर्वक भृञ् धातुसे प्राभृत शब्द बना है । भृञ् धातुका अर्थ धारण और पोषण करना है। तदनुसार पेजदोषप्राभृत और कषायप्राभृत इन दोनों नामोंको गौण्य नामपद में गर्भित किया है। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि इस पेजदोषप्राभृत या कषायप्राभृत शास्त्रमें जीवोंको पेज, दोष और कषायके धारण करने और पोषण करनेका उपदेश दिया गया है। किन्तु यहाँ धारणका अर्थ आधार और पोषणका अर्थ विस्तारसे कथन करना है। अर्थात् यह पेजदोषप्राभृत या कपायग्राभृत पेज, दोष और कषायोंके कथनका आधारभूत होनेसे धारण गुणवाला और उन्हींका विस्तारसे कथन करनेवाला होनेसे पोषण गुणवाला है। प्राभृतका सर्वत्र यही अर्थ करना चाहिये । जैसे, आकाशप्राभृतका अर्थ आकाशको धारण और पोषण करनेवाला शास्त्र होगा। यदि यहाँ धारण और पोषणसे जीवोंके द्वारा आकाशके धारण करने और पोषण करने रूप अर्थका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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