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________________ गा० ] णामणिरूवणं घेण दव्वम्मि पउत्तीदो । अणादियसिद्धतपदणामेसु जाणि अणादिगुणसंबंधमवेक्खिय पयट्टाणि जीवो णाणी चेयणावंतो त्ति ताणि गोण्णपदे आदाणपदे च णिवदंति, जाणि गोगोण्णाणि ताणि णोगोण्णपदणामेसु णिवदंति । पैमाणपदणामाणि वि गोण्णपदे चेव णिवदंति, पमाणस्स दव्वगुणत्तादो । अरविंदसँहस्स अरविंदसण्णा, गोमपदा; सा च अणादियसिद्धंतपदणामेसु पविटा, अणादिसरूवेण तस्स तत्थ पवुत्तिदंसणादो। अणादियसिद्धंतपदणामाणं धम्माधम्मकालागासजीवपुग्गलादीणं छप्पदंतब्भावो पुव्वं आँखें कमलकी पांखुरीकी तरह हों वह कमलदलनयना, जिसका मुख चन्द्रमाकी तरह गोल सुन्दर हो वह चन्द्रमुखी तथा जिसके ओष्ठ पके हुए बिम्बफलकी तरह लाल हों वह बिम्बोष्ठी कहलाती है। यह इन शब्दोंका अर्थ है । पर इनका उपयोग उपमामें ही किया जाता है, इसलिये ये स्वतन्त्ररूपसे अवयवपदनाम न होकर केवल प्रशंसारूप अर्थमें विशेषणरूपसे ही आते हैं। अनादिसिद्धान्तपद नामोंमें जो नाम अनादिकालीन गुण और उसके सम्बन्धकी अपेक्षासे प्रवृत्त हुए हैं, जैसे जीव, ज्ञानी, चेतनावान, वे गौण्यपद और आदानपदमें अन्तर्भूत हो जाते हैं। तथा जो नाम नोगौण्य हैं, अर्थात् गुणकी अपेक्षासे व्यवहृत नहीं होते हैं वे नोगौण्यपद नामों में अन्तर्भूत हो जाते हैं । शत, सहस्र इत्यादि प्रमाणपद नाम भी गौण्यपदमें ही अन्तर्भूत होते हैं, क्योंकि शतत्व आदि रूप प्रमाण द्रव्यका गुण है। यह प्रमेयमें ही पाया जाता है। अर्थात् इन नामोंसे उस प्रमाणवाली वस्तुका बोध होता है, इसलिये ये गौण्यपद नाम हैं। ___ अरविन्द शब्दकी अरविन्द यह संज्ञा नामपद नाम है, और उसका अनादिसिद्धान्तपदनामों में अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि अनादिकालसे अरविन्द शब्दकी अरविन्द इस संज्ञारूप अर्थमें प्रवृत्ति देखी जाती है । अर्थात् अरविन्द शब्दका अनादि कालसे अरविन्द इस संज्ञामें ही व्यवहार होता आ रहा है, इसलिये अरविन्द शब्दकी अरविन्द संज्ञा अनादिसिद्धान्त पदनाम है । तथा धर्म, अधर्म, काल, आकाश, जीव और पुद्गल आदि अनादिसिद्धान्तपद नामोंका छह नामोंमें यथायोग्य अन्तर्भाव पहले कहा जा चुका है। (१) "धम्मत्थिओ अधम्मत्थिओ कालो पुढवी आऊ तेऊ इच्चादीणि अणादियसिद्धंतपदाणि।"-ध० आ० १०५३८। ध० सं० पृ० ७६। "धम्मत्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासत्थिकाए जीवस्थिकाए पुग्गलत्थिकाए अद्धासमए से तं अणाइयसिद्धतेणं।"-अनु० स०१३०। (२) "सदं सहस्समिच्चादीणि पमाणपदणामाणि संखाणिबंधणादो ।"--ध० आ० ५० ५३८ । ध० सं० पृ० ७७ । “से किं तं पमाणेणं ? चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-नामप्पमाणे, ठवणप्पमाणे, दवप्पमाणे, भावप्पमाणे।"-अनु० स० १३०। (३) समाण-अ०, आ० । (४)-दसंधस्स अ०, आ० । (५) "नामपदं नाम गौडोऽन्ध्रो मिल इति गोडान्ध्रद्रमिलभाषानामधामत्वात्।" -ध० सं० १० ७७ । "अरविंदसहस्स अरविंदसण्णा णामपदं, णामस्स अप्पाणम्मि चेव पउत्तिदंसणादो।" -ध० आ० ५० ५३८ । "पिउपिआमहस्स नामेणं उन्नामिज्जए से तं नामेणंपित्रादेर्यद् बन्धुदत्तादि नाम आसीत् तत् पुत्रादेरपि तदेव विधीयमानं नाम्ना नामोच्यत इति तात्पर्यम् ।"-अनु० म० सू० १३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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