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________________ ३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पेज्जदोसविहत्ती १ सण्णाओ आदाणपदाओ, इदमेदस्स अत्थि त्ति संबंधणिबंधणत्तादो। [गाणी बुद्धिवं.] तो इच्चादीणि वि णामाणि आदाणपदाणि चेव; इदमेदस्स अस्थि ति विवक्खाणिबंधणत्तादो । एदाणि गोण्णपदाणि किण्ण होंति ? णः गुणमुहेण दवम्मि पवुत्तीए संबंधविवक्खाए विणा अदंसणादो । "विहवा रंडा पोरा दुव्विहा इच्चाईणि णामाणि पडिवक्खपदाणि, इदमेदस्स णत्थि त्ति विवक्खाणिबंधणत्तादो | सिलीबदी गलगंडो इसका है' इसप्रकारके संबन्धके निमित्तसे ये संज्ञाएँ व्यवहृत होती हैं। अर्थात् जो नाम किसी द्रव्य या गुणको ग्रहण करके उनके संबन्धके निमित्तसे व्यवहृत होते हैं उन्हें आदानपद कहते हैं। जैसे, दण्डके ग्रहण करनेके कारण दण्डी, छत्रके ग्रहण करनेके कारण छत्री, मुकुट धारण करनेके कारण मौली, गर्भ धारण करनेके कारण गर्भिणी और पतिको स्वीकार करनेके कारण अविधवा आदि नाम व्यवहृत होते हैं। ज्ञानी, बुद्धिमान् इत्यादि नाम भी आदानपद ही हैं, क्योंकि 'यह इसका है' इसप्रकारकी विवक्षाके कारण ही ये संज्ञाएं व्यवहृत होती हैं। शंका-ज्ञानी आदि नाम गौण्यपद क्यों नहीं हैं, क्योंकि इनके व्यवहृत होनेमें गुणोंकी मुख्यता देखी जाती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि संबन्धकी विवक्षा किये बिना केवल गुणोंकी मुख्यतासे इन नामोंकी द्रव्यमें प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है इसलिये ज्ञानी, बुद्धिमान इत्यादि नाम गौण्यपद नहीं हो सकते हैं । अर्थात् ज्ञानी बुद्धिमान् आदि संज्ञाएं केवल गुणोंकी प्रधानतासे ही व्यवहृत नहीं होती हैं किन्तु ज्ञान और बुद्धिके संबन्धकी विवक्षा होनेपर व्यवहृत होती हैं। अतः ये आदानपद ही हैं। विधवा, रंडा, पोरा अर्थात् कुमारी और दुर्विधा इत्यादिक नाम प्रतिपक्षपद हैं, क्योंकि, यह इसका नहीं है इसप्रकारकी विवक्षाके निमित्तसे ये संज्ञाएँ व्यवहृत होती हैं । अर्थात् पतिके न होनेसे विधवा, रण्डा और कुमारी ये नाम व्यवहृत होते हैं । तथा सौभाग्यके न होनेसे स्त्री दुर्विधा कहलाती है। तच्च आवंतीत्यादि । तत्र आबतीत्याचारस्य पञ्चमाध्ययनम् , तत्र ह्यादावेव आवन्ती केयावन्तीत्यालापको विद्यते इत्यादानपदेनैतन्नाम..''-अनु० म० सू० १३० । (१) त्ति विवक्खाणिबं-अ०,आ। "इदमेदस्स अस्थि त्ति विवक्खाए उप्पण्णत्तादो।"-ध० आ. ५०५३८ (२)-तादो (त्रु० ५) तो इच्चा-ता०, स० । -त्तादो जदि आदाणपदाओ सण्णाओ तो इच्चा-अ०, आ०। (३) “णाणी बुद्धिवंतो इच्चाईणि णामाणि आदाणपदाणि चेव इदमेदस्स अत्थि त्ति विवक्खाणिबंधणत्तादो।'-ध० आ० ५० ५३८। (४) अस्थि विव-अ०, आ०।” (५)"विहवा रंडा पोरो दुव्विहो इच्चाईणि पडिवक्खपदाणि अगब्भिणी अमउडी इच्चाईणि वा इदमेदस्स णस्थि त्ति विवक्खाणिबंधणत्तादो"-ध०, आ० प० ५३८ । “प्रतिपक्षपदानि कुमारी बन्ध्येत्येवमादीनि आदानपदप्रतिपक्षनिबन्धनत्वात्"-ध० सं० पृ० ७६। "विवक्षितवस्तुधर्मस्य विपरीतो धर्मो विपक्षस्तद्वाचकं पदं विपक्षपदम तन्निष्पन्नं किञ्चिन्नाम भवति, यथा शृगाली अशिवापि अमाङ्गलिकशब्दपरिहारार्थं शिवा भण्यते"-अनु० म०, हरि० सू० १३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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