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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [१ पेज्जदोसविहत्ती तत्थ वि पुव्वाणुपुवीए चउत्थादो, पच्छाणुपुव्वीए विदियादो, जत्थतत्थाणुपुवीए पढमादो विदियादो तदियादो चउत्थादो पंचमादो वा पुव्वगयादो कसायपाहुडं विणिग्गयं । पुव्वगए वि पुव्वाणुपुवीए पंचमादो, पच्छाणुपुव्वीए दसमादो, जत्थतत्थाणुपुबीए पढमादो विदियादो एवं जाव चोइसमादो वा णाणप्पवादादो कसायपाहुडं विणिग्गयं । तत्थ वि पुव्वाणुपुवीए दसमादो, पच्छाणुपुवीए तदियादो, जत्थतत्थाणुपूवीए पढमादो विदियादो एवं जाव बारसमादो वत्थूदो कसायपाहुडं विणिग्गयं । तत्थ वि पुव्वाणुपुव्वीए तदियादो, पच्छाणुपुव्वीए अहारसमादो, जत्थतत्थाणुपुव्वीए पढमादो विदियादो एवं जाव बीसदिमादो वा पेज्जदोसपाहुडादो कसायपाहुडं विणिस्सरियं । एदं सव्वं पि सुत्तेण अवुत्तं कथं वुच्चदे १ ण; "पुवम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्हि पाहुडे तदिए । कसायपाहुडं होदि” इच्चेदेण गाहासुत्तेण सूचिदत्तादो। एवं परूविदे कसायपाहुडं आणुपुग्विदुवारेण सिस्साणमुवकंतं होदि । एवं कसायपाहुडस्स आणुपुव्विपरूवणा गदा । * णामं छविहं। अंगके भेदोंकी अपेक्षा विचार करने पर पूर्वानुपूर्वीक्रमसे चौथे, पश्चादानुपूर्वीक्रमसे दूसरे, और यत्रतत्रानुपूर्वीक्रमसे पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे अथवा पाँचवें भेदरूप पूर्वगतसे कषायप्राभृत निकला है। ___पूर्वगतके भेदोंकी अपेक्षा विचार करने पर पूर्वानुपूर्वीक्रमसे पाँचवें, पश्चादानुपूर्वीक्रमसे दसवें और यत्रतत्रानुपूर्वीक्रमसे पहले, दूसरे अथवा इसीप्रकार एक एक संख्या बढ़ाते हुए चौदहवें भेदरूप ज्ञानप्रवादपूर्वसे कषायप्राभृत निकला है । ज्ञानप्रवाद पूर्वमें भी वस्तुओंकी अपेक्षा विचार करने पर पूर्वानुपूर्वीक्रमसे दसवीं, पश्चादानुपूर्वीक्रमसे तीसरी और यत्रतत्रानुपूर्वीक्रमसे पहली, दूसरी आदि यावत् बारहवीं वस्तुसे कषायप्राभृत निकला है। दसवीं वस्तुमें भी प्राभृतोंकी अपेक्षा विचार करने पर पूर्वानुपूर्वीक्रमसे तीसरे, पश्चादानुपूर्वीक्रमसे अठारहवें, और यत्रतत्रानुपूर्वीक्रमसे पहले, दूसरे आदि यावत् बीसवें पेज्जदोषप्राभृतसे कषायप्राभृत निकला है। शंका-सूत्रमें नहीं कही गई यह सब व्यवस्था यहाँ कैसे कही है ? समाधान-नहीं, क्योंकि 'पुव्वम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिये, इस गाथासूत्रसे यह सब व्यवस्था सूचित हो जाती है। इसप्रकार आनुपूर्वीकेद्वारा कथन करने पर कषायप्राभृत शिष्योंके बिलकुल समीपवर्ती हो जाता है। अर्थात् शिष्य उसकी स्थितिसे परिचित हो जाते हैं। इसप्रकार कषायप्राभृतकी आनुपूर्वी प्ररूपणा समाप्त हुई। * नाम छह प्रकारका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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