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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेज्जदोसविहत्ती अण्णाणणिराकरणदुवारेण कम्मक्खयणिमित्तसण्णाणुप्पत्तीए अभावादो । तदो एवंविहसुद्धणयाहिप्पाएण गुणहर-जइवसहेहि ण मंगलं कदं त्ति दट्ठव्वं । ववहारणयं पडुच्च पुण गोदमसामिणा चदुवीसहमणियोगद्दाराणमादीए मंगलं कदं । ण च ववहारणओ चप्पलओ; तत्तो' [ववहाराणुसारि-] सिस्साण पउत्तिदंसणादो। जो बहुजीवाणुग्गहकारी ववहारणओ सो चेव समस्सिदव्यो त्ति मणेणावहारिय गोदमथेरेण मंगलं तत्थ कयं । ६३. पुण्णकम्मबंधत्थीणं देसव्वयाणं मंगलकरणं जुत्तंण मुणीणं कम्मक्खयकंक्खुवाणमिदि ण वोत्तुं जुत्तं; पुण्णबंधहेउत्तं पडि विसेसाभावादो, मंगलस्सेव सरागसंजमस्स वि परिचागप्पसंगादो । ण च एवं; तेणे [ संजमपरिच्चागप्पसंग-] भावेण णिव्वुइगमणाभावद्रव्यश्रवणसे अज्ञानका निराकरण होकर कर्मक्षयके निमित्तभूत सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अतः इस प्रकारके शुद्धनयके अभिप्रायसे गुणधर भट्टारक और यतिवृषभ स्थविरने गाथासूत्रों और चूर्णिसूत्रोंके आदिमें मंगल नहीं किया है। ऐसा समझना चाहिये। किन्तु गौतमस्वामीने व्यवहारनयका आश्रय लेकर कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंके आदिमें ‘णमो जिणाणं' इत्यादि रूपसे मंगल किया है। यदि कहा जाय कि व्यवहारनय असत्य है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उससे व्यवहारका अनुसरण करनेवाले शिष्योंकी प्रवृत्ति देखी जाती है। अतः जो व्यवहारनय बहुत जीवोंका अनुग्रह करनेवाला है उसीका आश्रय करना चाहिये ऐसा मनमें निश्चय करके गौतम स्थविरने चौबीस अनुयोगद्वारोंके आदिमें मंगल किया है। ३. यदि कहा जाय कि पुण्य कर्मके बाँधनेके इच्छुक देशव्रतियोंको मंगल करना युक्त है, किन्तु कर्मों के क्षयके इच्छुक मुनियोंको मंगल करना युक्त नहीं है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, पुण्य बन्धके कारणोंके प्रति उन दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् पुण्य बन्धके कारणभूत कामोंको जैसे देशव्रती श्रावक करता है वैसे ही मुनि भी करता है, मुनिके लिये उनका एकान्तसे निषेध नहीं है । यदि ऐसा न माना जाय तो जिसप्रकार मुनियोंको मंगलके परित्यागके लिये यहाँ कहा जा रहा है उसीप्रकार उनके सरागसंयमके भी परित्यागका प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि, देशव्रतके समान सरागसंयम भी पुण्यबन्धका कारण है। यदि कहा जाय कि मुनियोंके सरागसंयमके परित्यागका प्रसंग प्राप्त होता है तो (१) वदंत्ति अ० आ०, स० । (२) "णमो जिणाणं १, णमो ओहिजिणाणं २, णमो परमोहिजिणाणं ३, णमो सव्वोहिजिणाणं ४, णमो अणंतोहिजिणाणं ५, . . . . . . . . . . . णमो वड्ढमाणबद्धिरिसिस्स ४४।" -वे. ध० आ० ५० ५१७-५३३ । (३) "चप्फलं सेहरे असच्चे अ' -दे० ना० ३ । २०। (४) तत्तो (७० ९) सिस्साण ता०, तत्तो सेसाण अ०, आ०, स०। (५) ण च संजमप्पसंगभावेण अ०, आ०, ण च एवं तेण ( त्रु० ८ ) भावेण ता०, ण च भावेण . . . •णिव्वु-सः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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