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________________ मंगलवियारो ण च सदाणुसारिसिस्साणं देवदाविसयभत्तिसमुप्पायणटं तं कीरदे; तेण विणा वि गुरुवयणादो चेव तेसिं तदुप्पत्तिदंसणादो। ण च पमाणाणुसारिसिरसाणं तदुप्पायणटुं कीरदे; जुत्तिविरहियगुरुवयणादो पयट्टमाणस्स पमाणाणुसारित्तविरोहादो । ण च भत्तिमंतेसु भत्तिसमुप्पायणं संभवदि; णिप्पण्णस्स णिप्पत्तिविरोहादो। ण च सिस्सेसु सम्मत्तत्थितमसिद्धं; अहेदुदिहिवादसुणणण्णहाणुववत्तीदो तेसिं तदस्थित्तसिद्धीदो । ण च लाहपूजासकारे पडुच्च सुणणकिरियाए वावदसिस्सेहि वियहिचारो; सम्मत्तेण विणा सुणताणं दव्वसवणं मोत्तूण भावसवणाभावादो। ण च दव्वसवणे एत्थ पोजणमत्थि; तत्तो निश्चित हुआ कि परमागमके उपयोगसे विघ्नोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका नाश हो जाता है। यदि कहा जाय कि शब्दानुसारी अर्थात् आगममें जो लिखा है या गुरुने जो कुछ कहा है उसका अनुसरण करनेवाले शिष्योंमें देवताविषयक भक्तिको उत्पन्न करानेके लिये मंगल किया जाता है सो भी नहीं है, क्योंकि, मंगलके विना भी केवल गुरुवचनसे ही उनमें देवताविषयक भक्तिकी उत्पत्ति देखी जाती है। यदि कहा जाय कि प्रमाणानुसारी अर्थात् युक्तिके बलसे आगम या गुरुवचनको प्रमाण माननेवाले शिष्योंमें देवताविषयक भक्तिको उत्पन्न करने के लिये मंगल किया जाता है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, जो शिष्य युक्तिकी अपेक्षा किये विना मात्र गुरुवचनके अनुसार प्रवृत्ति करता है उसे प्रमाणानुसारी माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि शास्त्रके आदिमें किये गये मंगलसे भक्तिमानोंमें भक्तिका उत्पन्न किया जाना संभव है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, जो कार्य उत्पन्न हो चुका है उसकी पुनः उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। अर्थात् जिनमें पहलेसे ही श्रद्धामूलक भक्ति विद्यमान है उनमें पुनः भक्तिके उत्पन्न करनेके लिये मंगलका किया जाना निरर्थक है। यदि कहा जाय कि शिष्योंमें सम्यक्त्व-श्रद्धाका अस्तित्व असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि, अहेतुवाद अर्थात् जिसमें युक्तिका प्रयोग नहीं होता है ऐसे दृष्टिवाद अंगका सुनना सम्यक्त्वके विना बन नहीं सकता है, इसलिये उनके सम्यक्त्वका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। यदि कहा जाय कि लाभ, पूजा और सत्कारकी इच्छासे भी अनेक शिष्य दृष्टिवादको सुनते हैं, अतः 'अहेतुवादात्मक दृष्टिवादका सुनना सम्यक्त्वके विना बन नहीं सकता है' यह कथन व्यभिचारी हो जाता है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, सम्यक्त्वके बिना श्रवण करनेवाले शिष्योंके द्रव्यश्रवणको छोड़कर भावश्रवण नहीं पाया जाता है। अर्थात् जो शिष्य सम्यक्त्वके न होने पर भी केवल लाभादिककी इच्छासे दृष्टिवादका श्रवण करते हैं उनका सुनना केवल सुननामात्र है उससे थोड़ा भी आत्मबोध नहीं होता है। यदि कहा जाय कि यहाँ द्रव्यश्रवणसे ही प्रयोजन है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, (१)-यणढें सं-आ०। (२) वापद-आ० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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