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________________ मंगलवियारो च्छेदभएणुवइटगाहाणं अवगाहियसयलपाहुडत्थाणं सचुण्णिसुत्ताणं विवरणं कस्सामो। २.संपहि (पदि)गुणहरभंडारएण गाहासुत्ताणमादीए जइवसहत्थेरेण वि चुण्णिसुत्तस्स आदीए मंगलं किण्ण कयं?ण एस दोसो; मंगलं हि कीरदे पारद्धकज्जविग्धयरकम्मशक्तिरूपी लोचनसमूहसे जिन्होंने त्रिभुवनको प्रत्यक्ष कर लिया है और जो तीनों लोकोंके परिपालक हैं ऐसे गुणधर भट्टारकके द्वारा परमागमरूप तीर्थकी व्युच्छित्तिके भयसे उपदेशी गईं और जिनमें सम्पूर्ण कषायप्राभृत का अर्थ समाया हुआ है ऐसी गाथाओंका चूर्णिसूत्रोंके साथ मैं वीरसेन आचार्य विवरण करता हूं। विशेषार्थ- समस्त द्रव्यश्रुत बारह अंगोंमें बटा हुआ है। उनमेंसे बारहवें अंग दृष्टिवादके परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये पाँच भेद हैं। इनमेंसे चौथे भेद पूर्वगतके उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं जिनमें पाँचवाँ भेद ज्ञानप्रवाद है। इसके बारह अर्थाधिकार ( वस्तु ) हैं, और प्रत्येक अर्थाधिकार बीस बीस प्राभृतसंज्ञक अर्थाधिकारोंमें विभक्त है। यहाँ पर इस पाँचवें पूर्वकी दसवीं वस्तुके तीसरे पेज्जप्राभृत या कषायप्राभृतसे प्रयोजन है। गुणधर आचार्यको श्रुतपरंपरासे यही कषायप्राभृत प्राप्त हुआ था। जिसका अभ्यास करके गुणधर भट्टारकने श्रुतविच्छेदके भयसे उसे अतिसंक्षेप में एकसौ अस्सी गाथाओंमें निबद्ध किया। अनन्तर गुरुपरंपरासे प्राप्त उन एकसौ अस्सी गाथाओंका आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्तिने अभ्यास करके उन्हें यतिवृषभ आचार्यको पढ़ाया । उन्हें पढ़कर यतिवृषभ आचार्यने उन पर चूर्णिसूत्र लिखे । इसप्रकार कषायप्राभृत पर जो कुछ लिखा गया वह परम्परासे वीरसेन स्वामीको प्राप्त हुआ। वीरसेन स्वामीने उसका अभ्यास करके उस पर यह जयधवला नामकी विस्तृत टीका लिखी जिसके रचने की यहाँ प्रतिज्ञा की है। २.शंका-गुणधर भट्टारकने गाथासूत्रोंके आदिमें तथा यतिवृषभ स्थविरने भी चूर्णिसूत्रोंके आदिमें मंगल क्यों नहीं किया ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रारंभ किये हुए कार्य में विघ्नोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका विनाश करनेके लिये मंगल किया जाता है और वे कर्म परमागमके उपयोगसे ही नष्ट हो जाते हैं । अर्थात् गाथासूत्र और चूर्णिसूत्र परमागमका सार लेकर बनाये गये हैं अतः परमागममें उपयुक्त होनेसे उनके कर्ताओंको मंगलाचरण करनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई, क्योंकि, जो काम मंगलाचरणसे होता है वही काम परमागमके उपयोगसे भी हो जाता है। इसलिये गुणधर भट्टारकने गाथासूत्रोंके और यतिवृषभ स्थविरने चूर्णिसूत्रोंके प्रारंभमें मंगल नहीं किया है। (१)-भट्टार-आ० । (२) तुलना-"सत्थादिमज्झअवसाणएसु जिणत्तोत्त मंगलुच्चारो। णासइ णिस्सेसाई विग्घाइं रविव तिमिराइं॥"-ति०प० गा०३२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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