SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ येज्जदोसविहत्ती जेणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्जलं अणंतत्थं । गाहाहि विवरियं तं गुणहरभडारयं वंदे ॥ ६ ॥ गुणहरवयणविणिग्गयगाहाणत्थोवहारिओ सब्यो । जेणज्जमखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ॥ ७ ॥ जो अज्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ॥ ८ ॥ १.णाणप्पवादामलदसमवत्थु-तदियकसायपाहुडुवहि-जलणिवहप्पक्खालिय-मइणाणलोयणकलावपञ्चक्खीकयतिहुवणेण तिहुवणपरिवालएण गुणहरभडारएण तित्थवोसमुद्रमें ऊँची ऊँची तरंगें उठा करती हैं, उनका श्रुतज्ञान भी नयभंगरूपी तरंगोंसे युक्त है । ऐसे गणधरदेवको सब लोग नमस्कार करो। इससे वीरसेन स्वामीने यह प्रकट किया है कि यह श्रुत गणधरदेवके द्वारा प्रकट हो कर चला आ रहा है ॥ ५ ॥ जिन्होंने इस आर्यावर्तमें अनेक नयोंसे युक्त, उज्ज्वल और अनन्त पदार्थोंसे व्याप्त कषायप्राभृतका गाथाओं द्वारा व्याख्यान किया उन गुणधर भट्टारकको मैं वीरसेन आचार्य नमस्कार करता हूँ ॥ ६ ॥ विशेषार्थ-जिन गुणधर भट्टारकने मूल कषायप्राभृतका मंथन करके एकसौ अस्सी गाथाओंमें इस कषायप्राभृतकी रचना की है उनकी उपर्युक्त गाथाके द्वारा स्तुति की गई है। इससे यह प्रकट किया है कि कषायप्राभृतके मूल उद्धारकर्ता गुणधर भट्टारक ही हैं। मूल कषायप्राभृतकी जो परंपरा उन तक आई वह आगे भी चलती रहे इसलिये गुणधर भट्टारकने सबसे पहले उसे एक सौ अस्सी गाथाओंमें निबद्ध किया ॥ ६ ॥ जिन आर्यमंतु आचार्यने गुणधर आचार्य के मुखसे प्रकट हुई गाथाओंके समस्त अर्थका अवधारण किया, नागहस्ती आचार्य सहित वे आर्यमंक्षु आचार्य हमें वर प्रदान करें ॥७॥ विशेषार्थ- इसमें आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्तीकी स्तुति की गई है और बतलाया है कि इन दोनों आचार्योंने उन एक सौ अस्सी गाथाओंका अभ्यास किया था ॥७॥ जो आर्यमंक्षु आचार्य के शिष्य हैं और नागहस्ती आचार्य के अन्तेवासी हैं, वृत्तिसूत्रके कर्ता वे यतिवृषभ आचार्य मुझे वर प्रदान करें ॥८॥ विशेषार्थ-इस गाथाके द्वारा चूर्णिसूत्रके कर्ता यतिवृषभ आचार्यकी स्तुति की गई है। इसमें स्पष्ट बतलाया है कि यतिवृषभ आचार्य ने आर्यमंक्षु और नागहस्तीके पास विद्याभ्यास किया था ॥ ८॥ ११. ज्ञानप्रवाद पूर्वकी निर्दोष दसवीं वस्तुके तीसरे कषायप्राभृतरूपी समुद्रके जलसमुदायसे धोए गये मतिज्ञानरूपी लोचनसमूहसे अथवा मति-मननशक्ति और ज्ञान-जाननेकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy