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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [१ पेज्जदोसविहत्ती तित्थयरा चउवीस वि केवलणाणेण दिसव्वहा । पसियंतु सिवसरूवा तिहुवणसिरसेहरा मज्झं ॥२॥ भागको व्याप्त करता है, उसका शरीर भी पार्थिव है और वह सकलंक है। पर चन्द्रप्रभ जिनदेव अपने परमौदारिकरूप धवल शरीरके तेजसे तीनों लोकोंके प्रत्येक भागको व्याप्त करते हैं। उनका आभ्यन्तर शरीर पार्थिव न होकर केवलज्ञानमय है और वे निष्कलंक हैं, ऐसे चन्द्रप्रभ जिनदेव सदा जयवन्त हों। वीरसेन स्वामीने इसके द्वारा चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रकी बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारकी स्तुति की है। 'धवलंगतेएण' इत्यादि पदके द्वारा उनकी बाह्य स्तुति की गई है । औदारिक नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुआ उनका औदारिक शरीर शुभ्रवर्ण था। उस शरीरकी प्रभा चन्द्रमाकी कान्तिके समान निस्तेज न हो कर तेजयुक्त थी। जो करोड़ों सूर्योंकी प्रभाको भी मात करती थी। 'केवलणाणसरीरो' इस पदसे भगवान्की आभ्यन्तर स्तुति की गई है। प्रत्येक आत्मा केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि अनन्त गुणोंका पिंड है, इसलिये उन अनन्त गुणोंके समुदायको छोड़ कर आत्मा स्वतन्त्र और कोई वस्तु नहीं है । बाह्य शरीरादिके द्वारा जो आत्माकी स्तुति की जाती है, वह आत्माकी स्तुति न होकर किसी विशिष्ट पुण्यशाली आत्माका उस शरीरस्तुतिके द्वारा महत्त्व दिखलानामात्र है। यहां केवलज्ञान उपलक्षण है जिससे केवलदर्शन आदि अनन्त आत्मगुणोंका ग्रहण हो जाता है। अथवा चार घातिया कर्मोंके नाशसे प्रकट होनेवाले आत्माके अनुजीवी गुणोंका ग्रहण होता है। 'अणंजणो' यह विशेषण भगवानकी अरहंत अवस्थाके दिखलानेके लिये दिया है । इससे यह प्रकट हो जाता है कि यह स्तुति अरहंत अवस्थाको प्राप्त चन्द्रप्रभ जिनदेवकी है। इस स्तोत्रके प्रारंभमें आये हुए 'जयइ धवल' पदके द्वारा वीरसेन स्वामीने इस टीकाका नाम 'जयधवला' प्रख्यापित कर दिया है और चिरकाल तक उसके जयवंत रहनेकी कामना की है। जयधवला टीकाको प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम धवलवर्णवाले चन्द्रप्रभ जिनदेवकी स्तुति करनेका भी यही अभिप्राय है ॥ १ ॥ जिन्होंने अपने केवलज्ञानसे समस्त पदार्थोंका साक्षात्कार कर लिया है, जो शिवस्वरूप हैं और तीनों लोकोंके अग्रभागमें विराजमान होने के कारण अथवा तीनों लोकोंके शलाकापुरुषोंमें श्रेष्ठ होने के कारण त्रिभुवनके सिरपर शेखररूप हैं, ऐसे चौवीसों तीर्थंकर भी मुझ पर प्रसन्न हों ॥२॥ विशेषार्थ- इस गाथाके द्वारा चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुति करते हुए उनके जयवंत होने की कामना की गई है। इससे वीरसेन स्वामीने यह प्रकट कर दिया है कि प्रत्येक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी कालमें चौबीस तीर्थंकर होते हैं, जो उस कालके समस्त महापुरुषों में प्रधानभूत होते हैं और आत्मकल्याणकारी तीर्थका प्रवर्तन करते हैं ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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